सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

इन दिनों .






मनचीता ताप है                                            
इन धूपीले दिनों में
जिसे चाहने पर ओढना है
अनिच्छा होने पर मुख मोड़ लेना ...

भोर में खिले मयंक को देखा अदेखा किया जाता है जैसे .

जनवरी विदा हो कर , फ़रवरी को सौंप गयी
लम्बे पहरों की बागडोर
अलसुबह ही नींद में पंख फडफडा कर
साँझ तक पाँव पसारे
यहाँ वहां से अलस कर सिमटता है
उजाला अब

कैकटस पर नूर है
मिर्च के पौधे में नन्हे सफ़ेद फूल से
चमक-दमक

मैना सर्दियों की खुमारी में
इन दिनों भी टपकते नल के पास
चहलकदमी करती , भोजन तलाशती है
उसकी आँखों के गिर्द पीला काजल
लुभावना

हवा में गुड पकने की गंध है
खजूर का गुड
गले में खराश जगाता
दूर से ही

तन , आधी धूप , आधी छांह में सुस्ताता
मन , दामोदर किनारे मद्धम चाल से उसकी
मछलियों से बतियाता ,
पानी में हाथ डाल उन्हें सहलाता
सुनता विलंबित ख्याल कोई

इस नदी की रेत पर सुगमता से चलना दूर तक
गंगा की महीन बालू जैसे पैर उलझते नहीं
यहां मेरे

मनचीती धूप में देखना ....

वसंत अपनी ही छाया पर
नीम की पीली पत्तियों सा
बिखरता - डोलता , विचरता रहता है
हवा के रुख पर
इन दिनों .

            - पारुल पुखराज .

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