सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

"याद की परछाइयाँ"

एक तलातुम पी गया है वो मेरी रानाइयाँ,
आ गई फिर से वो' ज़ालिम याद की परछाइयाँ

ना रहा वो मैकदा ना रही वो महफिलें,
रह गई दिल के नगर में नाचती तन्हाइयाँ।

हम वफा के रास्तों पर हो रहे थे गामजन,
और आँखो से वो' मेरी ले गया बीनाइयां।

सोज़ का तूफान है मेरे जिगर के सामने,
इक समन्दर दर्द का लेने लगा अंगड़ाइयाँ।

इक पिघलते काँच की मानिन्द तड़पाने लगी,
ये भली लगती नहीं हैं अब मुझे शहनाइयाँ।

घाव जो भरने लगे थे फिर हरे होने लगे,
हाय फिर से चल रही हैं बाग़ में पुरवाइयाँ.

रानाइया: रोशनी
गामज़न: अग्रसर
बीनाइयां : आँखों की रोशनी
सोज़: आग

4 टिप्‍पणियां:

Na ने कहा…

nice verse

meeta ने कहा…

घाव जो भरने लगे थे फिर हरे होने लगे,
हाय फिर से चल रही हैं बाग़ में पुरवाइयाँ....
खूबसूरत ग़ज़ल इमरान जी .

Imran ने कहा…

@साधना जी... आपका दिली शुक्रिया

Imran ने कहा…

@मीता जी! आपका हार्दिक आभार....

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