सोमवार, 7 नवंबर 2011

...शायद कल सुबह सूरज का जमीर जाग जाये ...

चुपचाप, नंगे पैर, दबे पांव 
पतझड़ से डंसी जमीन पर चलकर सर्दी 
न जाने कब आकर मेरे आँगन में बैठ गयी  
पता ही नहीं चला !


बरसातें क्या हुई कि दिन सिकुड़ गए
और रात का अँधेरा पांच पहर तक पसर गया . 
रही सही कसर कोहरे ने पूरी कर दी .


कोट की आस्तीनों से फिसल कर 
ठण्ड सीने को जकड रही है  ,
मफलर से लिपटी है गर्दन फिर भी अकड़ रही है .
उँगलियों को शायद पाला काट रहा है ,
धीरे-धीरे हथेलियों से गर्मी चाट रहा है .


काम चोर अंगेठी बगलें झांक रही है ,
धुवाँ उगल रही है और कोयला फाँक रही है .
मैं फुंकनी से उसमें जान डाल रहा हूँ .
अब जली की तब जली ... ग़लतफ़हमी पाल रहा हूँ .
उम्मीद तो है मुझे कि आग मैं जला लूँगा ,
आज रात तो सर्दी से पीछा मैं छुड़ा लूँगा .


शायद कल सुबह सूरज का जमीर जाग जाये ,
दिन भर धूप खिले और ठण्ड भाग जाये .

1 टिप्पणी:

meeta ने कहा…

Beautiful word picture Skand . Loved this .

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