किसी दिन
जब धरा से ख़िसक रहा हो
नारंगी दामन
और दूधिया चाँद
चढ़ रहा हो शर्माते
चढ़ रहा हो शर्माते
आकाश की सीढियां
तुम चुप चाप आ मेरे बाजू
बैठ जाती हो ...
पढ़ती हो
ख़ुशी और दुःख के साये
दिन भर का कारोबार ,
और शब्दों की उँगलियाँ पकड़
बिछ जाती हो
कोरे कागज पर ...
एक रूप होता है साकार .
कविता !
तुम कुछ ऐसे उतरती हो .
कभी अन्दर की पीर
कभी रूहानी ख़ुशी
का पैरहन पहन कर
का पैरहन पहन कर
मुझे लपेट लेती हो
अपने अहसासों से .
तुम में समा कर
मै भी भूल जाती हूँ
सारी दुनियादारी .
जैसे दर्द और ख़ुशी के
बोझ उतरते हैं .
बोझ उतरते हैं .
और
हम फिर गलबहियां डाले
दूर तक
ज़िन्दगी के रस्ते चलते हैं .
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