सोमवार, 29 अक्तूबर 2012

तेरा साथ .


किसी  दिन 
जब धरा से ख़िसक रहा हो 
नारंगी  दामन 
और दूधिया चाँद 
चढ़ रहा हो शर्माते 
आकाश की सीढियां 
तुम चुप चाप आ मेरे बाजू 
बैठ जाती हो ...

पढ़ती हो 
ख़ुशी और दुःख के साये 
दिन भर का कारोबार ,
और शब्दों की उँगलियाँ पकड़ 
बिछ जाती हो
कोरे कागज पर ...
एक रूप होता है साकार .

कविता !
तुम कुछ ऐसे उतरती हो .
कभी अन्दर की पीर 
कभी रूहानी ख़ुशी 
का पैरहन पहन कर 
मुझे लपेट लेती हो 
अपने अहसासों से .

तुम में समा कर 
मै भी भूल जाती हूँ 
सारी दुनियादारी .
जैसे दर्द और ख़ुशी के 
बोझ उतरते हैं .
और 
हम फिर गलबहियां डाले 
दूर तक 
ज़िन्दगी के रस्ते चलते हैं .

             - राजलक्ष्मी शर्मा .

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