मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

सरिता .

नदी में स्त्री है , स्त्री में नदी ... गंगा को समर्पित एक कविता -


तू उठती, गिरती, लहराती, बल खाती कहाँ चली सरिते ?

किन विरही नैनों से चोरी तूने ये भीगी शीतलता ?
किस मृगशावक की द्रुत गति से अपनायी तूने चंचलता ?
किस बदरी से सीखा तूने प्यासी धरती को सरसाना ?
और कहाँ मिली ये कोमलता, ये शिशु सा स्वर, ये निर्मलता ?
इतना बतला दे कौन गाँव घर, तेरी कौन गली सरिते ?

तू हिमपुत्री, तू ऋषि कन्या, तू चिर यौवना कुमारी सी,
जाने किस सागर से मिलने जाती है बांह पसारी सी .
तू कभी प्रचंडी चंडी सी, तो कभी सौम्य पर्वत बाला,
तो कभी ममत्व पूर्ण माँ सी, बन जाती कोमल नारी सी .
ये तो बतला तू कैसे इतने रूपों में बदली सरिते !

क्यों कभी अचानक गुमसुम सी चलते चलते हो जाती है ?
और कभी उच्छ्वास भर-भर पत्थर से सर टकराती है ? 
कैसी व्याकुलता है जो तू क्षण भर विश्राम नहीं करती ? 
क्या प्यास भरी तेरे उर में, तू किसे खोजने जाती है ?
है कौन छिपी तेरे भीतर एक विरहन सी, पगली सरिते ?

                       - मीता .   

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