गुरुवार, 21 मार्च 2013

फागुन राग

   

 अनेक अर्थों के रंगों से सराबोर इन्द्रधनुषी छटा को बिखेरती हुई, अमीर गरीब के भेद को ख़त्म करती आखिर होली आ ही गयी. मन-तन-वस्त्र-मुख-गात सब के सब रंग से भीगे हुए ... कहते हैं, "आई होली की पाँचें, नाचें मिल के डोकरियां". होली की मदमस्त तरंग , डोकरी यानि बूढी औरतों के ह्रदय में भी अनुराग के रंग का संचार कर देती है.

         संस्कृत कालीन काव्य 'मृच्छिकटिकम' एवं 'स्वप्नवासवदत्तम ' में यही उत्सव मदनोत्सव के नाम से जाना जाता है. 'रत्नावली' नाटिका में भी इस उत्सव का बहुत ही सरस चित्रण हुआ है. यहाँ तक कि हमारा लोक साहित्य तो होली के लोकगीतों से तर ब तर है. हर भाषा में होली के लोक गीतों का रस रंग बिखरा पड़ा है. जिस तरह प्रकृति अपनी केंचुली को त्याग कर नवीनता को धारण करती है, ठीक उसी तरह मानव मन भी अपनी पुरानी बुक्कल को फेंक कर उन्मत्त भाव से नव रंगों में अपने को समाहित कर लेता है. होली ही एक मात्र ऐसा त्यौहार है जो हमारे वर्गभेद को समाप्त कर सब कुछ एकमेव कर देता है.
   
         तो आइये इस अंक में काव्य की पिचकारी से निकली हुई बहुरंगी काव्य धारा से अपने मन की चूनर को रंग डालिए.

            - दिनेश द्विवेदी .

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रीति कालीन होली -

आई खेलि होरी
आई खेलि होरी, कहूँ नवल किसोरी भोरी,
बोरी गई रंगन सुगंधन झकोरै है ।
कहि पदमाकर इकंत चलि चौकि चढ़ि,
हारन के बारन के बंद-फंद छोरै है ॥
घाघरे की घूमनि, उरुन की दुबीचै पारि,
आँगी हू उतारि, सुकुमार मुख मोरै है ।
दंतन अधर दाबि, दूनरि भई सी चाप,
चौवर-पचौवर कै चूनरि निचौरै है ॥

- पदमाकर .
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या अनुरागी चित्त की , गति समुझै नहिं कोइ
ज्यों-ज्यों बूडै स्याम रंग , त्यों-त्यों उज्जलु होइ

- बिहारी .
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मुस्लिम काव्य में होली-

होली पिचकारी

हां इधर को भी ऐ गुंचादहन पिचकारी।
देखें कैसी है तेरी रंगविरंग पिचकारी।।

तेरी पिचकारी की तकदीद में ऐ गुल हर सुबह।
साथ ले निकले हैं सूरज की किरन पिचकारी।।

जिस पे हो रंग फिशां उसको बना देती है।
सर से ले पांव तलक रश्के चमन पिचकारी।।

बात कुछ बस की नहीं वर्ना तेरे हाथों में।
अभी आ बैठें यहीं बनकर हमतंग पिचकारी।।

हो न हो दिल ही किसी आशिके शैदा का नजीर।
पहुंचा है हाथ में उसके बनकर पिचकारी।।

 नज़ीर अकबराबादी .
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छायावादी काल की होली -

नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे 

नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे,खेली होली !
जागी रात सेज प्रिय पति सँग रति सनेह-रँग घोली,
दीपित दीप, कंज छवि मंजु-मंजु हँस खोली-              
मली मुख-चुम्बन-रोली ।

प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कस कसक मसक गई चोली,
एक-वसन रह गई मन्द हँस अधर-दशन अनबोली-                    
कली-सी काँटे की तोली ।

मधु-ऋतु-रात,मधुर अधरों की पी मधु सुध-बुध खोली,
खुले अलक, मुँद गए पलक-दल, श्रम-सुख की हद हो ली-                        
बनी रति की छवि भोली ।

बीती रात सुखद बातों में प्रात पवन प्रिय डोली,
उठी सँभाल बाल, मुख-लट,पट, दीप बुझा, हँस बोली                  
रही यह एक ठिठोली ।

-------------- और ---------------------------------

रँग गई पग-पग धन्य धरा

रँग गई पग-पग धन्य धरा,
हुई जग जगमग मनोहरा ।

वर्ण गन्ध धर, मधु मरन्द भर,
तरु-उर की अरुणिमा तरुणतर
खुली रूप - कलियों में पर भर        
स्तर स्तर सुपरिसरा ।

गूँज उठा पिक-पावन पंचम
खग-कुल-कलरव मृदुल मनोरम,
सुख के भय काँपती प्रणय-क्लम      
वन श्री चारुतरा ।

 सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
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छायावादोत्तर कालीन होली -

तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।

तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।

देखी मैंने बहुत दिनों तक
दुनिया की रंगीनी,
किंतु रही कोरी की कोरी
मेरी चादर झीनी,

तन के तार छूए बहुतों ने
मन का तार न भीगा,
तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।

अंबर ने ओढ़ी है तन पर
चादर नीली-नीली,
हरित धरित्री के आँगन में
सरसों पीली-पीली,

सिंदूरी मंजरियों से है
अंबा शीश सजाए,

रोलीमय संध्या ऊषा की चोली है।
तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।

- हरिवंशराय बच्चन .

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नवगीत में होली -

कौन रंग फागुन रंगे ...

कौन रंग फागुन रंगे,रंगता कौन वसंत?
प्रेम रंग फागुन रंगे,प्रीत कुसुंभ वसंत।

चूड़ी भरी कलाइयाँ,खनके बाजू-बंद,
फागुन लिखे कपोल पर,रस से भीगे छंद।

फीके सारे पड़ गए,पिचकारी के रंग,
अंग-अंग फागुन रचा,साँसें हुई मृदंग।

धूप हँसी बदली हँसी, हँसी पलाशी शाम,
पहन मूँगिया कंठियाँ, टेसू हँसा ललाम।

कभी इत्र रूमाल दे, कभी फूल दे हाथ,
फागुन बरज़ोरी करे, करे चिरौरी साथ।

नखरीली सरसों हँसी, सुन अलसी की बात,
बूढ़ा पीपल खाँसता, आधी-आधी रात।

बरसाने की गूज़री, नंद-गाँव के ग्वाल,
दोनों के मन बो गया, फागुन कई सवाल।

इधर कशमकश प्रेम की, उधर प्रीत मगरूर,
जो भीगे वह जानता, फागुन के दस्तूर।

पृथ्वी, मौसम, वनस्पति, भौरे, तितली, धूप,
सब पर जादू कर गई, ये फागुन की धूल।

- दिनेश शुक्ल .

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सखी री फागुन आया है 

सरस नवनीत लाया है,
सखी री फागुन आया है!!

बरगद ठूँठ भयो बासंती,चँहु ओर हरियाली,
चंपा, टेसू, अमलतासके भी चेहरे पे लाली,
पीली सरसों के नीचे मनुहारी छाया है!
सखी री, फागुन आया है!!

तन पे, मन पे साँकल देकर द्वार खड़ी फगुनाहट,
मन का पाहुन सोया था फ़िर किसने दी है आहट,
पनघट पे प्यासी राधा के सम्मुख माया है!
सखी री, फागुन आया है!!

हाथ कलश लेकर के चन्द्रमा देखे राह तुम्हारी,
सूरज डूबा, हुई हवा से पाँव निशा के भारी,
बूँद-बूँद कलसी में भरके रस छलकाया है!
सखी री, फागुन आया है!!

ठीक नहीं ऐसे मौसम में मैं तरसूँ-तू तरसे,
तोड़ के सारे लाज के बन्धन आजा बाहर घर से,
क्यों न पिचकारी से मोरी रंग डलवाया है!

सखी री, फागुन आया है!!

- रवीन्द्र प्रभात .

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आधुनिक कालीन होली -

गाल गुलाबी हुए धूप के


इस मौसम में
आज दिखा है
पहला-पहला बौर आम का।

गाल गुलाबी
हुए धूप के
इन्द्रधनुष सा रंग शाम का।

साँस-साँस में
महक इतर सी
रंग-बिरंगे फूल खिल रहे,
हल्दी अक्षत के
दिन लौटे
पंडित से यजमान मिल रहे,
हर सीता के
मन दर्पण में
चित्र उभरने लगा राम का।

खुले-खुले
पंखों में पंछी
लौट रहे हैं आसमान से
जगे सुबह
रस्ते चौरस्ते
मंदिर की घंटी अजान से।
बर्फ पिघलने
लगी धूप से
लौट रहा फिर दिन हमाम का।

खुली-बन्द
ऑंखों में आते
सतरंगी सपने अबीर के।
द्वार-द्वार गा रहा
जोगिया मौसम
पद फगुआ कबीर के
रूक-रूक कर चल रहा बटोही
इंतजार है किस मुकाम का .

जयकृष्ण राय तुषार .

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रंग बोलते हैं .

तुम्हारे अहसास से अछूती होती
तो
सचमुच मै सफ़ेद होती ...
किसी ख़ाली केनवास की तरह .

कई रंग मचलते हैं
जब तुम गुनगुनाते हो ,
मंद पड़ते हैं
जब एक
अनकहा अबोला खिंच जाता है ...
कुछ तो कहो
प्रियतम
तुम्हारे इशारे पर
सूरज का लाल रंग देह में उछलता है .
तुम्हारे ख्यालों
के नीले पीले हरे से मेरा एकांत
महकता है .

तुम्हारी
एक हलकी गुलाबी मुस्कुराहट
के लिए नैन रास्ता ताकते हैं .
कभी अनमने रहो
तो
अन्तरमन से भूरे काले रंग झांकते हैं .
उस विराट समंदर का
काही और गहरा नीला रंग
याद दिलाते है उस गंभीरता की
जिसमे मै सिमट कर इस भीड़ में
खुद को महफूज़ समझती हूँ .

सारे रंग
मुझे तुम्हारी ही याद दिलाते हैं
तुम्हे पता है ना..
मेरे सारे रंग तुमसे हैं ,
तुम न होते
सचमुच मै सफ़ेद होती
किसी ख़ाली केनवास की तरह .

              - रश्मि प्रिया

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होली 

गाल गुलाल हुए मौसम के ,
चाल भंग की झूम हुई ,
तन भी भीगा, मन भी भीगा
होली की जब धूम हुई .

पायल छनकी हलकी-हलकी ,
रस की मटकी छलकी-छलकी ,
छिप-छिप सब से फिरती गोरी -
चूनर कोरी ले मलमल की .

कान्हा के हाथों पिचकारी -
रंगने की पूरी तैय्यारी ,
सारा बरसाना रंग डाला ,
अब आई राधा की बारी .

- मीता .
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जीवन का हर दिन होली है

कहीं एक नन्हा सा बिरवा उपज रहा है, धीरे-धीरे
सोख  रहा है  थोड़ा पानी,  थोड़ी  मिट्टी, धीरे-धीरे
बड़ा एक दिन होगा, उसकी शाखों पर होंगे पत्ते
भर  देगा  हरियाली  मेरी  आँखों  में,  धीरे-धीरे 
जीवन का हर दिन होली है

जिसकी चादर में सिमटे, ये सूरज, तारे हैं सारे
जिसके आँचल में आ सिमटे बादल, अपना सब कुछ वारे
जिसका  विस्तार, निमंत्रण  पाखी को  देता है, उड़  जा रे
उस नीले अम्बर का नीलापन, मेरी आँखों के धारे
जीवन का हर दिन होली है

दिनभर जलकर,थककर, दिनकर का स्वर्णिम-ओज हुआ खाली
ठंडी बयार के मंद - मंद झोंकों ने थपकी दे डाली
मानस-मन की सारी पीड़ा,ज्यों अपने अंतस में पाली
ढलती शामों ने आकर मेरी आँखों में भर दी लाली
जीवन का हर दिन होली है

पीली-राखी, पीली-हल्दी, पीली सरसों, पीली चादर
सिन्दूर सुहागन मांगों में, धानी-धानी लहरी चूनर 
प्रेम-पिपासु नयनों में बिखरा-बिखरा दूध और केसर
रंगों का उत्सव मनता है पल-पल में देखो जीवन भर   
जीवन का हर दिन होली है .

 - पुष्पेन्द्र वीर साहिल .
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लोक गीतों में होली-

आज बिरज में होरी है रे रसिया

आज बिरज में होरी है रे रसिया
होरी है रे रसिया, बरजोरी है रे रसिया | 
आज बिरज में ...

आज बिरज में होरी है रे रसिया
कहूँ बहुत कहूँ थोरी है रे रसिया |
आज बिरज में ...

इत तन श्याम सखा संग निकसे
उत वृषभान दुलारी है रे रसिया | 
आज बिरज में ...

उड़त गुलाल लाल भये बदरा
केसर की पिचकारी है रे रसिया | 
आज बिरज में ...

बाजत बीन, मृदंग, झांझ ओ डफली
गावत दे -दे - तारी है रे रसिया | 
आज बिरज में ...

श्यामा श्याम संग मिल खेलें होरी,
तन मन धन बलिहारी है रे रसिया | 
आज बिरज में ...

होरी है रे रसिया, बरजोरी है रे रसिया | 
आज बिरज में ...
आज बिरज में होरी रे रसिया !
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मैं तो कोसूंगी कुञ्ज बिहारी 

मैं तो कोसूंगी कुञ्ज बिहारी
मोरी नवल चुनरिया फारी

बरज यशोदा तू अपने लाल को
वो तो तोडत हार हजारी
मोती बिखर गए रंग महल में
चुन रही सखियाँ सारी।
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होरी खेलन आयो श्याम

होरी खेलन आयो श्याम, आज याए रंग में बोरो री
आज याए रंग में बोरो री, आज याए रंग में बोरो री
याकी हरे बाँस की बाँसुरिया, याए तोरि मरोरो री ....
होरी खेलन आयो श्याम...

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डार गयो मो पे रंग की गागर

डार गयो मो पे रंग की गागर 
मैं जो भूले से देखन लागी उधर .
बिन होरी खेरे जाने न दूँगी
जाते कहाँ हो , जरा ठहरो इधर .
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अब तो तिहारी बन आयी 

अब तो तिहारी बन आयी रे छयलवा
बहियां पकड़ मुख मलत गुललवा  

संग के सहेली सब दूर निकस गयीं 
हमहूँ अकेली धर पाई रे छयलवा 
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राधे नन्द कुंवर समझाय रही 

राधे नन्द कुंवर समझाय रही 
होरी खेलो फागुन ऋतू आय रही
अब के होरिन मैं घर से न निकसूं
चरनन सीस नवाय रही
बेला भी फूली , चमेली भी फूली 
सरसों रही सरसाय रही .

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आई अचानक होरी 

आई अचानक होरी 
पिया परदेस गयो री
आई अचानक होरी ...

सब सखियाँ मिल होरी खेलें
केसर रंग बनो री
बिन पिया फाग मोहे आग सा लागे
कासे करूं बरजोरी .

आई अचानक होरी .
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सरगम 

चलचित्र होली गीतों की परंपरा में यह गीत एक विशेष महत्व रखता है ... अपनी सादगी, मिठास और गहराई की वजह से. प्रस्तुत है शकील बदायुनी जी का लिखा हुआ, शमशाद बेगम का गाया, नौशाद साब के सुरीले संगीत से सजा, मदर इंडिया का यह मधुर गीत सरगम में.
 शुभकामनाओं के साथ, कि होली का यह त्यौहार आप सब के जीवन को खुशियों के रंगों से सराबोर कर दे .


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