शुक्रवार, 8 मार्च 2013

कामायनी से

यह आज समझ तो पाई हूँ
मैं दुर्बलता में नारी हूँ
अवयव की सुन्दर कोमलता
लेकर मैं सबसे हारी हूँ

पर मन भी क्यों इतना ढीला
अपने ही होता जाता है
घनश्याम खंड सी आँखों में
क्यों सहसा जल भर आता है

सर्वस्व समर्पण करने को
विश्वास महातरु छाया में ?
चुपचाप पड़ी रहने की क्यों
ममता जगती है माया में ?

नारी तुम केवल श्रद्धा हो
विश्वास रजत नग पग तल में
पियूष स्रोत सी बहा करो
जीवन के सुन्दर समतल में .

- जयशंकर प्रसाद .
    

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