पृथ्वी, सौर मंडल का एक मात्र ग्रह जहाँ जल है, वायु है, वनस्पति है, जीव है, जीवन है। सूर्य से सही दूरी पर मौजूद, अपनी धुरी पर घूमती पृथ्वी अलग-अलग ऋतुओं, फल-फूलों, धन-धान्य द्वारा प्रकृति के सर्वोत्तम उपहार हम पर लुटाती रही है। हमने साधिकार उन्हें स्वीकारा ही नहीं बल्कि जहाँ मौका मिला नोच-खसोट कर अधिक लेने से भी नहीं चूके। स्नेहवत्सला पृथ्वी ने जितना हमने माँगा उतना हमें दिया। पर समय के साथ हमारी मांगे भी सुरसा के मुख की तरह बढ़ती चली गयी हैं।
गौर करें तो स्पष्ट सुनी जा सकती है प्रकृति की चीत्कार, जिसका हम दो हाथों से दोहन कर रहे हैं। धसकते हिमालय, सूखती नदियां, सूनामी, बढ़ता तापमान, पेड़ों के काटने से प्रायः निर्वस्त्र प्रतीत होते पहाड़ों की मिट्टी का लगातार कटान इसका सबूत है कि प्रकृति बार-बार हम से कुछ कहने की कोशिश कर रही है।
महात्मा गांधी ने कहा था, पृथ्वी के पास प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकता मिटा सकने का पर्याप्त सामर्थ्य है, किन्तु प्रत्येक व्यक्ति का लालच मिटा सकने का नहीं, " The world has enough for everyone's need, but not enough for everyone's greed ."
ये हमारा लालच ही तो है जो नए-नए हथियार ईजाद किये जा रहे हैं। इतिहास से कोई सबक न लेते हुए हम बनाये जा रहे हैं तरह-तरह के अणु, परमाणु, रासायनिक हथियार, जो बटन दबाते ही एक पूरी सभ्यता को नष्ट कर सकते हैं। दूसरों से ताकतवर बने रहने का हमारा लालच इन्हें बनाने की प्रमुख वजह है … रक्षा-प्रतिरक्षा तो बहाना मात्र है।
प्रसिद्द वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था, " I know not with what weapons World War III will be fought, but World War IV will be fought with sticks and stones ."
सोचा जाये तो चतुर्थ विश्व युद्ध की संभावना शायद ही बचे। पृथ्वी को मृतप्राय कर कहीं हम ही डायनासोर की तरह विलुप्त न हो जाएं।
हम हैं , क्योंकि .... पृथ्वी है।
- मीता .
______________________________________________
छोटी-सी दुनिया
यही जो छोटी-सी दुनिया हमें मिली है
सच है, सुन्दर है
और असह्य भी-
यही सम्हाले नहीं सम्हलती है
यही भरी है इतने हर्ष से, यही द्रवित है इतने विषाद से।
अपने बगल में टुकुर-टुकुर ताकती गिलहरी से
कहा फूल ने-
एक बुढ़िया अपनी गुदड़ी से निकालकर
एक तोता खाया फल अपनी नातिन को देते हुए
यही बोली।
छोटी सी है तितलियों और मधुमक्खियों की दुनिया,
छोटी सी दुनिया तोतों और बगुलों की,
आम और अमरुद की, इमलियों और बेरों की।
बड़ा सपना देखती
बड़ी सचाई को संक्षिप्त करती
सूरज और चाँद को
नक्षत्रों और अंतरिक्ष को
हथेली पर अक्षत की तरह
पवित्र रखती
यही
छोटी-सी दुनिया
हमें मिली है
सच है
सुन्दर है।
- अशोक वाजपेयी .
_______________________________________________
भरोसे के तंतु
ऐसा क्या है कि लगता है
शेष है अभी भी
धरती की कोख में
प्रेम का आखिरी बीज
चिड़ियों के नंगे घोंसलों तक में
नन्हे-नन्हे अंडे
अच्छे दिनों की प्रार्थना में लबरेज़ किंवदंतियां
चूल्हे में थोड़ी सी आग की गंध
घर में मसाले की गंध
और जीवन में
एक शर्माती हुई हँसी
क्या है कि लगता है
कि विश्वास से
एक सिरे से उठ जाने पर
नहीं करना चाहिए विश्वास
और हर एक मुश्किल समय में
शिद्दत से
खोजना चाहिए एक स्थान
जहाँ से रोशनी के कतरे
बिखेरे जा सकें
अँधेरे मकानों में
सोच लेना चाहिए
कि हर मुश्किल समय ले कर आता है
अपने झोले में
एक नया राग
बहुत मधुर और कालजयी
कोई सुन्दर कविता
ऐसा क्या है कि लगता है
कि इतने किसानों के आत्महत्या करने के बाद भी
कमी नहीं होगी कभी अन्न की
कई-कई गुजरातों के बाद भी
लोगों के दिलों में
बाकी बचे रहेंगे
रिश्तों के सफ़ेद खरगोश
क्या है कि ऐसा लगता है
और लगता ही है …
एक ऐसे भयावह समय में
जब उम्मीदें तक हमारी
बाजार के हाथ गिरवी पड़ी हैं
कितना आश्चर्य है
कि ऐसा लगता है
कि पूरब से एक सूरज उगेगा
और फ़ैल जाएगी
एक दूधिया हंसी
धरती के इस छोर से उस छोर तक …
और हम एक होकर
साथ-साथ
खड़े हो जायेंगे
इस पृथ्वी पर धन्यवाद की मुद्रा में
- विमलेश त्रिपाठी .
__________________________________________
पृथ्वी
पृथ्वी धीरे-धीरे नष्ट हो रही है
जैसे नष्ट हो रहा है घर
जैसे नष्ट हो रहा है जंगल
जैसे नष्ट हो रही है तन्मयता
जैसे नष्ट हो रही है समझदारी
नष्ट हो रहा है साधारण का प्रकाश
नष्ट हो रहा है बीत चुका युग
नष्ट हो रहा है प्रेम के लिए एकांत
नष्ट हो रहा है सारा समर्थ-असमर्थ
बढ़ रहा है सिर्फ झूठ
बढ़ रहा है सिर्फ छल
बढ़ रहा है सिर्फ सुनसान
बढ़ रहा है सिर्फ प्रश्न-चिन्ह
पृथ्वी धीरे-धीरे नष्ट हो रही है
जैसे नष्ट हो रही है दोपहर
जैसे नष्ट हो रही है नाव
जैसे नष्ट हो रही है सांस
जैसे नष्ट हो रहा है बढ़िया स्वभाव
जैसे नष्ट हो रहा है सच
जैसे नष्ट हो रहा है बचपन
जैसे नष्ट हो रहा है चिड़िया का गाना इस पृथ्वी से।
- शहंशाह आलम .
___________________________________________
कैसा पानी कैसी हवा
किस तरह होती जा रही है दुनिया
कैसे छोड़ कर जाऊंगा मैं
बच्चों तुम्हें और तुम्हारे बच्चों को
इस कांटेदार भूल-भुलैया में
किस तरह और क्या सोचते हुए
मरूंगा मैं कितनी मुश्किल से
सांस लेने के लिए भी जगह होगी या नहीं
खिड़की से क्या पता
कब दिखना बंद हो हरी पत्तियों के गुच्छे
हरी पत्तियों के गुच्छे नहीं होंगे
तो मैं कैसे मरूंगा
मैं घर में पैदा हुआ था
घर पेड़ का सगा था
गाँव में बड़ा हुआ
गाँव खेत-मैदान का सगा था
पर अब किस तरह रंग बदल रही है दुनिया
मैं कारखानों में फंसी आवाज़ों के बिस्तर पर
नहीं मरूंगा
कारखाने ज़रूरी हैं
कोई अफ़सोस नहीं
आदमी आकाश में सड़कें बनाये
कोई दिक्कत नहीं
पर वह शैतान
उसके नाखून … भयानक जबड़े …
वह शहरों गावों पर मंडरा रहा है
और हमारी परोपकारी संस्थाएं
हर घर से उस के लिए
जीवित मांस की व्यवस्था कर रही हैं।
घरों की पसलियों पर
कारखानों की कुहनियों का बोझ
गलत बात है
स्याह रास्ता अंतहीन अंत जैसा
और जुगनुओं सी टिमटिमाती
भली आत्माओं के दो-चार शब्द
हरी पत्तियों का गुच्छा होगा
तब भी दिक्कत आएगी
सोच-सोच कर
तुम्हारे बच्चों के बच्चे किस तरह
रास्ता बनाएंगे
कैसा पानी कैसी हवा
ईंधन का पता नहीं क्या करेंगे ?
सच मरते वक़्त अपने को माफ़ नहीं
कर पाऊंगा मैं।
- चंद्रकांत देवताले .
_________________________________________
सब्ज़ लम्हे
सफ़ेदा चील जब थक कर कभी नीचे उतरती है
पृथ्वी-
घोर अंधकार में घूमती हुई पृथ्वी
देख रही है
भय और विस्मय-भरी नज़रों से
अपनी धुरी को
उसे अब पता चला है
वह नाच रही है
एक मिसाइल की नोक पर।
- नोमान शौक़ .
_____________________________________________
ओ पृथ्वी !
छाती फाड़ कर दिखा सकता तो बताता
तुम्हारे लिए मेरे भीतर कितना प्यार है ओ पृथ्वी !
जो तुम्हें ध्वस्त कर, अपनी शक्ति का अनुमान लगाते हैं
दूसरों के मन में भय जगाते हुए
निर्भय और सुरक्षित होने का डंका बजाते हैं
क्षमा करो उन्हें, क्षमा करो पृथ्वी !
क्षमा करो और नए मनुष्य के शीश पर हाथ रख
आशीर्वाद दो कि वह इन आतताइयों के विरुद्ध
युद्ध में विजयी हो !
विजयी हो और
वनस्पतियों-पक्षियों-पशुओं और मनुष्यों के लिए
तुम्हारी शंकालु दृष्टियाँ ममतामय हो उठें एक बार फिर !
एक बार फिर तुम्हें सूर्यार्थ मिले !
फिर तुम्हें नया मनुष्य
शस्यात्मा और जीवन देही कह कर प्रणत हो !
एक नया श्रम
एक नयी शक्ति
एक नयी मनीषा
तुम्हारी कोख में जन्म ले ओ सृष्टि माध्यमे !
विनाश का सृजन के सम्मुख समर्पण अनिवार्य है अब।
छाती फाड़ कर दिखा सकता तो बताता
तुम्हारे लिए कितना … कितना प्यार है
मेरे भीतर ओ पृथ्वी !
- शलभ श्रीराम सिंह .
___________________________________________
यह पृथ्वी रहेगी
मुझे विश्वास है
यह पृथ्वी रहेगी
यदि और कहीं नहीं तो मेरी हड्डियों में
यह रहेगी जैसे पेड़ के तने में
रहते हैं दीमक
जैसे दाने में रह लेता है घुन
यह रहेगी प्रलय के बाद भी मेरे अंदर
यदि और कहीं नहीं तो मेरी ज़बान
और मेरी नश्वरता में
यह रहेगी
और एक सुबह मैं उठूंगा
मैं उठूंगा पृथ्वी-समेत
जल और कच्छप-समेत मैं उठूंगा
मैं उठूंगा और चल दूंगा उस से मिलने
जिस से वादा है
कि मिलूंगा ।
- केदारनाथ सिंह .
____________________________________________
भरोसे के तंतु
ऐसा क्या है कि लगता है
शेष है अभी भी
धरती की कोख में
प्रेम का आखिरी बीज
चिड़ियों के नंगे घोंसलों तक में
नन्हे-नन्हे अंडे
अच्छे दिनों की प्रार्थना में लबरेज़ किंवदंतियां
चूल्हे में थोड़ी सी आग की गंध
घर में मसाले की गंध
और जीवन में
एक शर्माती हुई हँसी
क्या है कि लगता है
कि विश्वास से
एक सिरे से उठ जाने पर
नहीं करना चाहिए विश्वास
और हर एक मुश्किल समय में
शिद्दत से
खोजना चाहिए एक स्थान
जहाँ से रोशनी के कतरे
बिखेरे जा सकें
अँधेरे मकानों में
सोच लेना चाहिए
कि हर मुश्किल समय ले कर आता है
अपने झोले में
एक नया राग
बहुत मधुर और कालजयी
कोई सुन्दर कविता
ऐसा क्या है कि लगता है
कि इतने किसानों के आत्महत्या करने के बाद भी
कमी नहीं होगी कभी अन्न की
कई-कई गुजरातों के बाद भी
लोगों के दिलों में
बाकी बचे रहेंगे
रिश्तों के सफ़ेद खरगोश
क्या है कि ऐसा लगता है
और लगता ही है …
एक ऐसे भयावह समय में
जब उम्मीदें तक हमारी
बाजार के हाथ गिरवी पड़ी हैं
कितना आश्चर्य है
कि ऐसा लगता है
कि पूरब से एक सूरज उगेगा
और फ़ैल जाएगी
एक दूधिया हंसी
धरती के इस छोर से उस छोर तक …
और हम एक होकर
साथ-साथ
खड़े हो जायेंगे
इस पृथ्वी पर धन्यवाद की मुद्रा में
- विमलेश त्रिपाठी .
__________________________________________
पृथ्वी
पृथ्वी धीरे-धीरे नष्ट हो रही है
जैसे नष्ट हो रहा है घर
जैसे नष्ट हो रहा है जंगल
जैसे नष्ट हो रही है तन्मयता
जैसे नष्ट हो रही है समझदारी
नष्ट हो रहा है साधारण का प्रकाश
नष्ट हो रहा है बीत चुका युग
नष्ट हो रहा है प्रेम के लिए एकांत
नष्ट हो रहा है सारा समर्थ-असमर्थ
बढ़ रहा है सिर्फ झूठ
बढ़ रहा है सिर्फ छल
बढ़ रहा है सिर्फ सुनसान
बढ़ रहा है सिर्फ प्रश्न-चिन्ह
पृथ्वी धीरे-धीरे नष्ट हो रही है
जैसे नष्ट हो रही है दोपहर
जैसे नष्ट हो रही है नाव
जैसे नष्ट हो रही है सांस
जैसे नष्ट हो रहा है बढ़िया स्वभाव
जैसे नष्ट हो रहा है सच
जैसे नष्ट हो रहा है बचपन
जैसे नष्ट हो रहा है चिड़िया का गाना इस पृथ्वी से।
- शहंशाह आलम .
___________________________________________
कैसा पानी कैसी हवा
किस तरह होती जा रही है दुनिया
कैसे छोड़ कर जाऊंगा मैं
बच्चों तुम्हें और तुम्हारे बच्चों को
इस कांटेदार भूल-भुलैया में
किस तरह और क्या सोचते हुए
मरूंगा मैं कितनी मुश्किल से
सांस लेने के लिए भी जगह होगी या नहीं
खिड़की से क्या पता
कब दिखना बंद हो हरी पत्तियों के गुच्छे
हरी पत्तियों के गुच्छे नहीं होंगे
तो मैं कैसे मरूंगा
मैं घर में पैदा हुआ था
घर पेड़ का सगा था
गाँव में बड़ा हुआ
गाँव खेत-मैदान का सगा था
पर अब किस तरह रंग बदल रही है दुनिया
मैं कारखानों में फंसी आवाज़ों के बिस्तर पर
नहीं मरूंगा
कारखाने ज़रूरी हैं
कोई अफ़सोस नहीं
आदमी आकाश में सड़कें बनाये
कोई दिक्कत नहीं
पर वह शैतान
उसके नाखून … भयानक जबड़े …
वह शहरों गावों पर मंडरा रहा है
और हमारी परोपकारी संस्थाएं
हर घर से उस के लिए
जीवित मांस की व्यवस्था कर रही हैं।
घरों की पसलियों पर
कारखानों की कुहनियों का बोझ
गलत बात है
स्याह रास्ता अंतहीन अंत जैसा
और जुगनुओं सी टिमटिमाती
भली आत्माओं के दो-चार शब्द
हरी पत्तियों का गुच्छा होगा
तब भी दिक्कत आएगी
सोच-सोच कर
तुम्हारे बच्चों के बच्चे किस तरह
रास्ता बनाएंगे
कैसा पानी कैसी हवा
ईंधन का पता नहीं क्या करेंगे ?
सच मरते वक़्त अपने को माफ़ नहीं
कर पाऊंगा मैं।
- चंद्रकांत देवताले .
_________________________________________
सब्ज़ लम्हे
सफ़ेदा चील जब थक कर कभी नीचे उतरती है
पहाड़ों को सुनाती है
पुरानी दास्तानें पिछले पेड़ों की …
वहां देवदार का इक ऊंचे कद का पेड़ था पहले
वो बादल बाँध लेता था कभी पगड़ी की सूरत अपने पत्तों पर
कभी दोशाले की सूरत उसी को ओढ़ लेता था …
हवा की थाम कर बाहें
कभी जब झूमता था, उस से कहता था,
मेरे पाँव अगर जकड़े नहीं होते,
मैं तेरे साथ ही चलता।
उधर शीशम था, कीकर से कुछ आगे
बहुत लड़ते थे वह दोनों
मगर सच है कि कीकर उसके ऊंचे कद से जलता था
सुरीली सीटियां बजती थीं जब शीशम के पत्तों में
परिंदे बैठ कर शाखों पे, उसकी नकलें करते थे …
वहां इक आम भी था
जिस पे एक कोयल कई बरसों तलक आती रही …
जब बौर आता था …
उधर दो-तीन थे जो गुलमुहर, अब एक बाकी है,
वह अपने जिस्म पर खोदे हुए नामों को ही सहलाता रहता है।
उधर एक नीम था
जो चांदनी से इश्क करता था …
नशे में नीली पड़ जाती थीं सारी पत्तियां उसकी।
ज़रा और उस तरफ परली पहाड़ी पर,
बहुत से झाड़ थे जो लम्बी-लम्बी सांसें लेते थे,
मगर अब एक भी दिखता नहीं है उस पहाड़ी पर !
कभी देखा नहीं, सुनते हैं, उस वादी के दामन में,
बड़े बरगद के घेरे से बड़ी एक चम्पा रहती थी,
जहाँ से काट ले कोई, वहीँ से दूध बहता था,
कई टुकड़ों में बेचारी गयी थी अपने जंगल से …
सफ़ेदा चील इक सूखे हुए से पेड़ पर बैठी
पहाड़ों को सुनाती है पुरानी दास्तानें ऊंचे पेड़ों की,
जिन्हें इस पस्त क़द इन्सां ने काटा है, गिराया है,
कई टुकड़े किये हैं और जलाया है !!
- गुलज़ार .
___________________________________________
पृथ्वी का सामान्य ज्ञान
___________________________________________
पृथ्वी का सामान्य ज्ञान
घोर अंधकार में घूमती हुई पृथ्वी
देख रही है
भय और विस्मय-भरी नज़रों से
अपनी धुरी को
उसे अब पता चला है
वह नाच रही है
एक मिसाइल की नोक पर।
- नोमान शौक़ .
_____________________________________________
ओ पृथ्वी !
छाती फाड़ कर दिखा सकता तो बताता
तुम्हारे लिए मेरे भीतर कितना प्यार है ओ पृथ्वी !
जो तुम्हें ध्वस्त कर, अपनी शक्ति का अनुमान लगाते हैं
दूसरों के मन में भय जगाते हुए
निर्भय और सुरक्षित होने का डंका बजाते हैं
क्षमा करो उन्हें, क्षमा करो पृथ्वी !
क्षमा करो और नए मनुष्य के शीश पर हाथ रख
आशीर्वाद दो कि वह इन आतताइयों के विरुद्ध
युद्ध में विजयी हो !
विजयी हो और
वनस्पतियों-पक्षियों-पशुओं और मनुष्यों के लिए
तुम्हारी शंकालु दृष्टियाँ ममतामय हो उठें एक बार फिर !
एक बार फिर तुम्हें सूर्यार्थ मिले !
फिर तुम्हें नया मनुष्य
शस्यात्मा और जीवन देही कह कर प्रणत हो !
एक नया श्रम
एक नयी शक्ति
एक नयी मनीषा
तुम्हारी कोख में जन्म ले ओ सृष्टि माध्यमे !
विनाश का सृजन के सम्मुख समर्पण अनिवार्य है अब।
छाती फाड़ कर दिखा सकता तो बताता
तुम्हारे लिए कितना … कितना प्यार है
मेरे भीतर ओ पृथ्वी !
- शलभ श्रीराम सिंह .
___________________________________________
यह पृथ्वी रहेगी
मुझे विश्वास है
यह पृथ्वी रहेगी
यदि और कहीं नहीं तो मेरी हड्डियों में
यह रहेगी जैसे पेड़ के तने में
रहते हैं दीमक
जैसे दाने में रह लेता है घुन
यह रहेगी प्रलय के बाद भी मेरे अंदर
यदि और कहीं नहीं तो मेरी ज़बान
और मेरी नश्वरता में
यह रहेगी
और एक सुबह मैं उठूंगा
मैं उठूंगा पृथ्वी-समेत
जल और कच्छप-समेत मैं उठूंगा
मैं उठूंगा और चल दूंगा उस से मिलने
जिस से वादा है
कि मिलूंगा ।
- केदारनाथ सिंह .
____________________________________________
2 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर रचनाएँ पढ़ने को मिली। .
प्रस्तुति हेतु धन्यवाद!
I was always haunted by negative thoughts and this often had a bad effect on my well-being. However, I always found salvation in art! I began to draw and compose stories. Recently, my sister gave me an extraordinary thing that greatly improved my well-being. Sister gave me buddha art wall. When I asked where she got such beauty, she said that from Texelprintstore.com. Now I feel inspired for every day! My thoughts are refreshed and I have my inside balance.
एक टिप्पणी भेजें