सोमवार, 17 अक्तूबर 2011

फिर से .



मेरे न रहने पर भी 
सुबह की धूप निकलेगी ,
तुम्हें सहला के गुज़रेगी ... 
कहीं 
कोई चिड़िया गाएगी ...
हवा तुम तक 
खिले फूलों की खुशबू लाएगी ...
और 
तुम देखोगे 
कुछ भी नहीं बदला !

तितलियाँ 
फूल खोजेंगी ,
रोज़ 
वो शाम का सूरज 
उनींदा हो के डूबेगा ,
सितारे 
टिमटिमायेंगे ,
किसी मैदान में 
नन्हे बच्चे 
खिलखिलायेंगे . 

वही 
हर दिन की 
आपा धापी में 
हर दिन 
रहेंगे सब ...
थकेंगे , 
शाम को 
अपने घरों में लौट आयेंगे .

किसी के 
होने, न होने से 
कब 
कुछ भी बदलता है .

तुम याद रखोगे -
तो ना हो कर भी 
होऊँगी .
और 
अगर भूल जाओगे -
तब भी 
मैं रहूंगी ;
और 
देखूँगी तुम्हें 
तुम्हारी आँखों से .

कभी महसूस भी होगा 
तुम्हें 
जब कोई झोंका 
छू के गुजरेगा .
या फिर 
बारिश की पहली बूँद 
जब 
मिटटी को महकाएगी 
और 
सौंधी सी वो खुशबू 
तुम्हारे पास आएगी .

ये जो एक नींद है 
हम जिस को कहते 
ज़िन्दगी हैं ;
जब इस से जागते हैं हम ,
तो मिलते हैं 
उजाले में 
न जाने 
कितने चेहरों से ,
हमें 
पीछे कहीं 
जो छोड़ आये थे .

कभी 
जब आँख खोलोगे ,
मिलूंगी फिर तुम्हें 
उस नींद के आगे 
सुबह की रौशनी में ;
और थामूंगी 
तुम्हारा हाथ -
फिर से .

                            - मीता .

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