अकसर मैं सोचती हूँ
इन पर्वतों के आगे ,
उन बादलों से ऊपर ,
उस आसमां की हद तक
जो दिख रहा है मुझ को
उस से भी कहीं आगे ,
कोहरे की चादरों के उस पार ;
कुछ तो होगा !!
आती कहाँ से है ये
दो पल की ज़िंदगानी ?
जाता कहाँ को है ये
बहती नदी का पानी ?
धुंधला बना हुआ है
इक नक्श सा अधूरा ,
ज़ेहन की सरहदों के उस पार ;
कुछ तो होगा !!
मुट्ठी को कितना बांधो
कब धूप रुक सकी है ?
खोली है जब हथेली
खाली ही तो मिली है .
कुछ हो , जो आ के ठहरे ,
बदले न रंग ओ चेहरे ,
बदलते मौसमों के उस पार ;
कुछ तो होगा !!
ये भीड़ का समंदर
और रूह की तनहाई ,
ये ख्वाब , ये उम्मीदें
और दर्द की परछाईं ,
ये शोर ओ गुल का आलम ,
और रात दिन की भटकन ,
इन सारे सिलसिलों के उस पार ;
कुछ तो होगा !!
मीता .
इन पर्वतों के आगे ,
उन बादलों से ऊपर ,
उस आसमां की हद तक
जो दिख रहा है मुझ को
उस से भी कहीं आगे ,
कोहरे की चादरों के उस पार ;
कुछ तो होगा !!
आती कहाँ से है ये
दो पल की ज़िंदगानी ?
जाता कहाँ को है ये
बहती नदी का पानी ?
धुंधला बना हुआ है
इक नक्श सा अधूरा ,
ज़ेहन की सरहदों के उस पार ;
कुछ तो होगा !!
मुट्ठी को कितना बांधो
कब धूप रुक सकी है ?
खोली है जब हथेली
खाली ही तो मिली है .
कुछ हो , जो आ के ठहरे ,
बदले न रंग ओ चेहरे ,
बदलते मौसमों के उस पार ;
कुछ तो होगा !!
ये भीड़ का समंदर
और रूह की तनहाई ,
ये ख्वाब , ये उम्मीदें
और दर्द की परछाईं ,
ये शोर ओ गुल का आलम ,
और रात दिन की भटकन ,
इन सारे सिलसिलों के उस पार ;
कुछ तो होगा !!
मीता .
2 टिप्पणियां:
अनुमानों का सुन्दर ताना बाना बुना है!
Thank you Anupama ji.
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