शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

कुछ तो होगा !!

अकसर मैं सोचती हूँ 
इन पर्वतों के आगे ,
उन बादलों से ऊपर ,
उस आसमां की हद तक 
जो दिख रहा है मुझ को 
उस से भी कहीं आगे ,
कोहरे की चादरों के उस पार ;
कुछ तो होगा !!

आती कहाँ से है ये 
दो पल की ज़िंदगानी ? 
जाता कहाँ को है ये 
बहती नदी का पानी ?
धुंधला बना हुआ है 
इक नक्श सा अधूरा ,
ज़ेहन की सरहदों के उस पार ;
कुछ तो होगा !!


मुट्ठी को कितना बांधो 
कब धूप रुक सकी है ?
खोली है जब हथेली 
खाली ही तो मिली है .
कुछ हो , जो आ के ठहरे ,
बदले न रंग ओ चेहरे ,
बदलते मौसमों के उस पार ;
कुछ तो होगा !!


ये भीड़ का समंदर 
और रूह की तनहाई ,
ये ख्वाब , ये उम्मीदें 
और दर्द की परछाईं ,
ये शोर ओ गुल का आलम ,
और रात दिन की भटकन ,
इन सारे सिलसिलों के उस पार ;
कुछ तो होगा !!


                       मीता .



2 टिप्‍पणियां:

अनुपमा पाठक ने कहा…

अनुमानों का सुन्दर ताना बाना बुना है!

meeta ने कहा…

Thank you Anupama ji.

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