बस 'क़दमों की आहट' आये' आने का' इमकान कहाँ,
ऐसे झूटे' ख्वाबों के सच होने का' इमकान कहाँ।
उम्मीदों के' बागीचे का' पत्ता पत्ता बिखर गया,
इस गुलशन में' फूलों के' फिर खिलने का' इमकान कहाँ।
दाना खाने' के चक्कर में' पंछी जो' उस पार गये,
खा पीकर भी वापिस उनके' आने का' इमकान कहाँ।
हाँ दौलत के' ढेर नहीं ये' माना माँ के आँचल में,
पर' दो वक्ता रोज़ी के ना' मिलने का' इमकान कहाँ।
डगमग होके' गोते खाए रूहें बाबा अम्मा की,
टूटी नय्या' पर साहिल पे' लगने का' इमकान कहाँ।
अब छोड़ो वो' देस के' वक्ते आखिर है' तुम आ जाओ।
कूच को हम तैय्यार के ज़्यादा रुकने का' इमकान कहाँ।
देख ज़ईफों' की हालत 'इमरान' समा पुरगौहर है,
नई मगर ये' पीढ़ी है नम होने का इमकान कहाँ।
इमकान : संभावना
रोज़ी: भोजन
ज़ईफः बूढ़े
समाः आसमान
पुरगौहरः आँसू से भरा
2 टिप्पणियां:
इमरान बहुत अलग नज़रिए से topic को देखा है तुम ने . खूबसूरत ग़ज़ल !!
" देख ज़ईफों' की हालत 'इमरान' समा पुरगौहर है,
नई मगर ये' पीढ़ी है नम होने का इमकान कहाँ "... वाह !!
yes imraan you've seen the difference of two generations so well
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