रविवार, 27 नवंबर 2011

नज़्म कोई जब भी लिखता हूँ ...



कोहनी छिल जाती है 
घुटने घिस जाते हैं 
सीने पर चाबुक की तरह 
छप जाते हैं लफ्ज़ कभी 

नज़्म कोई जब भी लिखता हूँ 
शब्दों का ताना बाना बुनता हूँ 
खुद से मैं कितना लड़ता हूँ... 

दर्द उठाता हू जब दांतो से 
एक टीस ज़हेन में उठती है 
अल्फ़ाज़ खुर्रंत की तरह 
हौले हौले से उतरते हैं काग़ज़ पर 
ज़िद्दी, मुँहफट, बुड्ढे, अक्खड़ 
लफ़्ज़ों को तरतीब लगाकर 
माज़ी के सफ्हो से तोड़ा करता हूँ... 



नज़्म कोई जब भी लिखता हूँ 
शब्दों का ताना बाना बुनता हूँ 
खुद से मैं कितना लड़ता हूँ... 

मन की तपती हांड़ी में 
जब देर तलक पकते हैं ख़याल 
मैं हाथ डालकर मिस्रा मिस्रा 
नज़्म की माला बुनता हूँ... 

कटखनने हैं लफ्ज़ कई 
उनको लहू की आदत है 
रोज़ डुबा कर रगों में अपनी 
काग़ज़ पे चस्पा करता हूँ 

कुछ रूठे बैठे रहते हैं 
होठों की खिड़की से ताकते रहते हैं 
तितली की तरह उड़ते हैं कुछ 
फूलों की तरह खिलते हैं कुछ 
मैं बचता, लड़ता काग़ज़ पर 
यह रंग उकेरा करता हूँ... 

नज़्म कोई जब भी लिखता हूँ 
शब्दों का ताना बाना बुनता हूँ 
खुद से मैं कितना लड़ता हूँ... 



                         
                         - देवेश मठारिया .

1 टिप्पणी:

meeta ने कहा…

Very intense expression Devesh . Very well written. Keep it up .

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