शनिवार, 10 दिसंबर 2011

ये शाम ...


ये शाम जो खड़ी है 
मेरे करीब आ कर ,
और अपने सर्द हाथों से 
छू रही है मुझ को ...
धुआं धुआं सी जुल्फें ,
ज़र्द ज़र्द चेहरा ,
बिखरी ....उदास....तनहा .



मैं भी ये देखती हूँ 
क्या रंग बदला दिन ने !!
वो पीला लाल सूरज,
वो रौशनी के मंज़र,
वो धूप , वो उजाले,
वो नर्म गुनगुनाहट 
किस तौर ग़ुम गए हैं ...
धुन्धलाये से चेहरे पे 
कोई नक्श नहीं बाकी !!


पर अब भी देखती हूँ 
मैं शाम की आँखों में 
नन्ही सी टिमटिमाहट .
इक रात का सफ़र है ,
उस पार उजाला है .
उस पार है गर्माहट .


शायद ये जानती है 
कि जब रात ढल चुकेगी ; 
तब फिर इसी चेहरे पर 
सुबह की हंसी होगी .


                    मीता .

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