ये शाम जो खड़ी है
मेरे करीब आ कर ,
और अपने सर्द हाथों से
छू रही है मुझ को ...
धुआं धुआं सी जुल्फें ,
ज़र्द ज़र्द चेहरा ,
बिखरी ....उदास....तनहा .
मैं भी ये देखती हूँ
क्या रंग बदला दिन ने !!
वो पीला लाल सूरज,
वो रौशनी के मंज़र,
वो धूप , वो उजाले,
वो नर्म गुनगुनाहट
किस तौर ग़ुम गए हैं ...
धुन्धलाये से चेहरे पे
कोई नक्श नहीं बाकी !!
पर अब भी देखती हूँ
मैं शाम की आँखों में
नन्ही सी टिमटिमाहट .
इक रात का सफ़र है ,
उस पार उजाला है .
उस पार है गर्माहट .
शायद ये जानती है
कि जब रात ढल चुकेगी ;
तब फिर इसी चेहरे पर
सुबह की हंसी होगी .
मीता .
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