रविवार, 11 दिसंबर 2011

सूरज की शाम

सुबह सुबह
सूरज को आग लगाकर
कोइ उफ़क पर रख जाता है
और दिन भर आकाशगंगा की ख़लाओं में
लुढ़कता रहता है यह सुलगता सूरज...


दिन भर जाने कितने शायर इसमें
अपनी नज़्में झोंका करते हैं
दर्द डुबोया करते हैं
इस गर्म तवे पर ख्वाबों की रोटियां सिकती हैं
नाउम्मीदी के पसीने छिडके जाते हैं
दिन भर... कई दफ़े
इस सोलर कुकर में
जज़्बातों के छौंक लगाये जाते हैं...



सुबह सुबह
सूरज को आग लगाकर
कोइ उफ़क पर रख जाता है...


दिन ढलता है
और अलसाता सूरज
बादलों के झोले में
जहाँ भर के ग़म बटोरकर
फिर उतर जाता है समंदर में


और इस बुझती आग से
उठता है शाम का धुंआ
एक सूरज गर गुरूब होता है
तो उम्मीदों का एक चाँद भी तो उगता है...


शाम तेरे कोहरे में मुझको
अक्सर
हँसता हुआ एक बुझता सूरज दिखता है...


                                          - देव .


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