रविवार, 11 दिसंबर 2011

शाम का धुंआ और तुम

शहरों में जब
शाम का धुंआ बरसता है
पागल मन
तुमसे मिलने को तरसता है


याद है...
जब कोहरे की चादर
चढ़ जाती थी कार के शीशों पर
तुम उँगलियों से मेरे नाम का पहला अक्षर
अपने नाम का पहला अक्षर
जोड़ जोड़ कर लिखती थी...



शहरों में जब
शाम का धुंआ बरसता है
अब शीशों पर ओस जमी ही रहती है
और
पागल मन
तुमसे मिलने को तरसता है...


पहले शाम पड़े आँगन में
कितनी नज़्में टूट के गिरती थी
आसमान से तारे भी आकर
लॉन में गिरते रहते थे
मैं आग जलाकर रोज़ शाम को
यह नज़्में तारे चुनता रहता था
और धुएं के उस पार बैठी तुम
धुंधली धुंधली सी दिखती रहती थी...


शहर में जब
शाम का धुंआ बरसता है
तुम अब भी आँखों के आँगन में
धुंधली धुंधली सी दिखती हो
और
पागल मन
तुमसे मिलने को तरसता है...


                                      - देव .







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