शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

ज़ालिम धुआँ ये शाम का.....

कोई फरिश्ता रोशनी राहों में तेरी लायेगा,
ज़ालिम धुआँ ये शाम का फिर कुछ नहीं कर पायेगा।


तरसा हुआ सीना तेरा आँखों में तेरी तिश्नगी,
बस इक सहर की चाह में काटी है तूने ज़िन्दगी,
अब शम्स तेरी हसरतों का जगमगा देगा जहाँ,
अब माह तेरी आरज़ू का इन लबों तक आयेगा,


ज़ालिम धुआँ ये शाम का फिर कुछ नहीं कर पायेगा



भीनी सी खुशबू से भरी तेरे चमन की ख़ाक है,
ये खुल्द के जैसी हसीं ये अर्श से भी पाक है,
महले मिसाले क़ैद से वापिस चलें चल लौटकर,
अपने वतन की खाक से लालो गुहर तू पायेगा।


ज़ालिम धुआँ ये शाम का फिर कुछ नहीं कर पायेगा 


                                                  - इमरान .    
                               
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तिश्नगी - प्यास,
सहर - सुबह,
शम्स - सूरज,
माहे उमीदो आरज़ू - उम्मीदों का चाँद,
तिश्ना लबों - प्यासे होठ,
खुल्द - जन्नत,
अर्श - आसमान
महले मिसाले क़ैद - क़ैदखाने जैसा महल,
लालो गुहर - बेशक़ीमती पत्थर (खज़ाना)


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