अम्बर के मण्डप के नीचे..
धरती का कालीन बिछाकर
तारों की ओदनी ओढ़े..
वो ख्वाबों की कश्ती में हिचकोले खाना
रहनुमा बन हवा संग वो आंचल लहराना
बोछार से बचाना..आंचल को ही छात्ता बनाना
मासूम भूलों को इतिहास बनाना
वो डांठ कर रुलाना..
फिर चेहरा पर हाथ रख..
माहवश बुलाना..
जैसे दीपक की ज्योति हवा से बचाना
माजरा क्या है मुझे फिर समझाना
वो कौड़ी भी जोड़े मेरी ही खातिर
बचपन की मदहोशी..उसे झूठी बुलाये
लगता था ऐसा वो माह्सूल कमाए
हर कौड़ी को अपनी एहतियाज बताये
हुआ बड़ा फिर भी..उसका लाल ही था मैं..
ता'ईद था उसका तो खड़ा था मैं
तबस्सुम उसकी मुझे बड़ा कर गयी
जाने क्यूँ मेरे तोहफे से पहले..वो रूह हो गयी
भूली रास्ता जो कश्ती..अब ख्वाब हो गयी
उस कश्ती को पाना..मेरी उड़ान हो गयी
आज भी अम्बर के मण्डप के नीचे..
धरती का कालीन बिछाकर
तारों की ओदनी ओढ़े बैठा हूँ..
माँ को देख..
फिर वो ही ख्वाबों की उड़ान भर रहा हूँ..!!
- सुमित उप्रेती .
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