भरतपुर के जंगलों में
बर्ड संक्टुँरी कहते हैं जिसे...
जब सर्दियों की आहट पर
नन्ही कोपलें पत्तियों के कम्बलों से झांकती हैं
कसमसा कर ओस की बूंदों में नहाया करती हैं
बड़ के पेड़ों से झांकते धूप के टुकड़ों में
मासूम सर्दियाँ अंगड़ाई लेती हैं...
और इसी मौसम में वो हर साल आते हैं यहाँ
...साइबेरियन सारस...
मीलों की दूरी
दो पंखों से तय करके
हर साल
कैसे आ जाते हैं यह सारस यहाँ...
और आ कर लिपट जाते हैं इसी मिट्टी से
अपने पंखों में समेट लेते हैं यह सूरज
अपने जंगल से लिपट जाते हैं
यह सारस, अपनी उड़ान से हर बरस,
अपनों से मिलने आते हैं...
मैं भी तो यहीं रहता हूँ
और मेरे अपने भी
पर मुद्दतें हुई
मैं कभी उड़ कर उनकी ठौर न पहुंचा
मैं सर्दियों में उनकी नर्म धूप से कहाँ लिपट पाया
मैं अपने घोंसले को छोड़
कभी नहीं उड़ पाया...
साइबेरियन सारस...
मुझको भी यह उड़ान सिखला दो
मेरे पंखों में भी
अपनी सी मोहब्बत भर डालो...
- देव .
बर्ड संक्टुँरी कहते हैं जिसे...
जब सर्दियों की आहट पर
नन्ही कोपलें पत्तियों के कम्बलों से झांकती हैं
कसमसा कर ओस की बूंदों में नहाया करती हैं
बड़ के पेड़ों से झांकते धूप के टुकड़ों में
मासूम सर्दियाँ अंगड़ाई लेती हैं...
और इसी मौसम में वो हर साल आते हैं यहाँ
...साइबेरियन सारस...
मीलों की दूरी
दो पंखों से तय करके
हर साल
कैसे आ जाते हैं यह सारस यहाँ...
और आ कर लिपट जाते हैं इसी मिट्टी से
अपने पंखों में समेट लेते हैं यह सूरज
अपने जंगल से लिपट जाते हैं
यह सारस, अपनी उड़ान से हर बरस,
अपनों से मिलने आते हैं...
मैं भी तो यहीं रहता हूँ
और मेरे अपने भी
पर मुद्दतें हुई
मैं कभी उड़ कर उनकी ठौर न पहुंचा
मैं सर्दियों में उनकी नर्म धूप से कहाँ लिपट पाया
मैं अपने घोंसले को छोड़
कभी नहीं उड़ पाया...
साइबेरियन सारस...
मुझको भी यह उड़ान सिखला दो
मेरे पंखों में भी
अपनी सी मोहब्बत भर डालो...
- देव .
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