उदासी ही का आलम है ,
कोई ख़ामोशी सी पसरी हुई है
यूँ फ़ज़ाओं में .
जहां इन बंद दरवाज़ों से
अपने सर को टकराकर ,
मेरी आवाज़ ही फिर लौट कर
कानों में आती है .
पलट कर देखती हूँ
दूर तक कोई नहीं दिखता ,
मैं सुनती हूँ मेरे खुद के ही
क़दमों की हरेक आहट .
मगर उम्मीद कहती है ,
कहीं पर है वो दरवाज़ा
मेरी आवाज़ को जो
दर बदर होने नहीं देगा .
कोई खिड़की कहीं पर है ,
जहाँ से देख कर मुझ को
बस इक आवाज़ दोगे
और मुझ को रोक लोगे तुम .
इसी उम्मीद पर शायद
थके क़दमों को लेकर भी ,
अभी तक चल रही हूँ मैं
शहर की सूनी राहों में .
- मीता .
- मीता .
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