गुरुवार, 12 जनवरी 2012

अभी तक चल रही हूँ मैं ...


बड़ी मुद्दत से हर सू इक ,
उदासी ही का आलम है ,
कोई ख़ामोशी सी पसरी हुई है 
यूँ फ़ज़ाओं में . 

जहां इन बंद दरवाज़ों से 
अपने सर को टकराकर ,
मेरी आवाज़ ही फिर लौट कर 
कानों में आती है .

पलट कर देखती हूँ 
दूर तक कोई नहीं दिखता ,
मैं सुनती हूँ मेरे खुद के ही 
क़दमों की हरेक आहट .

मगर उम्मीद कहती है ,
कहीं पर है वो दरवाज़ा 
मेरी आवाज़ को जो 
दर बदर होने नहीं देगा .

कोई खिड़की कहीं पर है ,
जहाँ से देख कर मुझ को 
बस इक आवाज़ दोगे 
और मुझ को रोक लोगे तुम .

इसी उम्मीद पर शायद 
थके क़दमों को लेकर भी ,
अभी तक चल रही हूँ मैं 
शहर की सूनी राहों में .


                 - मीता .

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