सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

ग़ज़ल .


         
कहाँ तो तय था चरागाँ हरेक घर के लिए 
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए .


यहाँ दरख्तों के साए में धूप लगती है 
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए .



न हो कमीज़ तो घुटनों से पेट ढँक लेंगे 
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए .


ख़ुदा नहीं न सही , आदमी का ख्व़ाब सही 
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए .


वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता 
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए .
                            
                                    - दुष्यंत कुमार .
                                            ' साए में धूप ' से

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