कहाँ तो तय था चरागाँ हरेक घर के लिए
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए .
यहाँ दरख्तों के साए में धूप लगती है
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए .
न हो कमीज़ तो घुटनों से पेट ढँक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए .
ख़ुदा नहीं न सही , आदमी का ख्व़ाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए .
वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए .
- दुष्यंत कुमार .
' साए में धूप ' से
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