फ़ना होना है तुझ में...या घुल जाना है
मुझ में अभी भी ये रौशनी का ख्वाब क्यूँ है !
मैं इधर हूँ कि उधर हूँ मैं ...
झूठ कह कर तुझे अब मनाऊँगा नहीं .
तेरे पास तेरे सवालों का हर जवाब क्यूँ है ?
तेरी ठंडी आवाज़ में भी सुकूं खोज लेता हूँ ,
और खुद से भी कोई शिकवा नहीं होता ...
मेरी आदत ये इतनी खराब क्यूँ है !
खुद को ही नहीं समझा
मेरी ज़िन्दगी इस कदर टेढ़ा हिसाब क्यूँ है ?
तेरे दिल में रह सकता नहीं ...
खोजता रहा जिसे उम्र भर
तेरे ही मन के गलियारों में
फिर दीखता मुझे वो गुलाब क्यूँ है ?
- सौरभ .
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