सोमवार, 2 जनवरी 2012

क्यूँ ?

अँधेरा हूँ मैं , यही मेरा वजूद है .
फ़ना होना है तुझ में...या घुल जाना है 
मुझ में अभी भी ये रौशनी का ख्वाब क्यूँ है !


मैं इधर हूँ कि उधर हूँ मैं ...
झूठ कह कर तुझे अब मनाऊँगा नहीं .
तेरे पास तेरे सवालों का हर जवाब क्यूँ है ?



तेरी ठंडी आवाज़ में भी सुकूं खोज लेता हूँ ,
और खुद से भी कोई शिकवा नहीं होता ...
मेरी आदत ये इतनी खराब क्यूँ है !


खुद को ही नहीं समझा 
मेरी ज़िन्दगी इस कदर टेढ़ा हिसाब क्यूँ है ? 


तेरे दिल में रह सकता नहीं ...
खोजता रहा जिसे उम्र भर 
तेरे ही मन के गलियारों में 
फिर दीखता मुझे वो गुलाब क्यूँ है ?


                     - सौरभ .

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