मंगलवार, 7 फ़रवरी 2012

पगडण्डी

कुछ दरख्तों के मीठे साए थे ...
जिन से हो कर के एक पगडण्डी
थोड़ी पथरीली , टेढ़ी मेढ़ी सी
मेरे घर की तरफ गुज़रती थी .

रोज़ उस से मैं हो के घर जाता
उन दरख्तों के साथ बतियाता ...
जंगली फूलों को चुन लिया करता                             
गाती बुलबुल को सुन लिया करता .

फिर एक रोज़ उस पगडण्डी पे चलते चलते
सोचा कुछ दूर तक टहल आऊँ ....
काली , चमकीली एक सड़क देखी
जो एक शहर की तरफ जाती थी .
शहर .... जो दूर जगमगाता था .
रौशनी .... जो मुझे बुलाती थी .

फिर तो ये सिलसिला सा चल निकला
मेरा उस सड़क पे अक्सर जाना
और उस रौशनी से बतियाना .

और एक रोज़ उस सड़क को हमक़दम करके
मैं उस पगडण्डी को पीछे कहीं छोड़ आया ....
जो मेरे घर की ओर जाती थी
वही घर .... जिस की छत के साये में
मुझे सुकून की एक गहरी नींद आती थी .

अब मेरे चार सू उजाला है .
रात भी दिन की तरह रौशन है .
पर मुझे रोज़ रोज़ जाने क्यूँ
वही पगडंडी याद आती है !

और एक रोज़ फिर से लौटा मैं
उसी पगडण्डी से उसी घर में
टूटी फूटी सी चंद दीवारें
अजनबी नज़रों से मिलीं मुझसे ...
अब वहां कोई भी नहीं रहता .

और अब कोई जगह ऎसी नहीं
जहाँ जा कर सुकूं की नींद आये .
रौशनी धूप बन के चुभती है .

ढूंढता हूँ मैं अब न जाने क्यूँ
उन दरख्तों का वो घना साया !
सोचता हूँ मैं अब न जाने क्यूँ
मैंने क्या खोया , मैंने क्या पाया .

                        - मीता .






2 टिप्‍पणियां:

Nirantar ने कहा…

sometimes you forget something important in urge to grab something new,time only tells how wrong or right were you

nice feelings ,nostalgic

meeta ने कहा…

You are absolutely right Rajendra ji , many times in our superficial pursuites we tend to ignore what is truly meaningful .
Thanks for the beautiful comment .

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