कल शाम
खुद से खुद को कुरेद के
सामने बिठा लिया ...
फिर पूछा
क्या मायने हैं ?
किस मोड़ पर ये खड़ी है तू ?
ज़िन्दगी ये कहाँ आ पड़ी है तू ?
टप टप की आवाज़
सन्नाटे को चीर गयी .
अस्तित्व की पर्त दर पर्त छील गयी .
वक़्त की किताब के सब सफे खुल गए ...
वो बाबुल की गोद में झूल जाना ,
चिंदी चिंदी सी सपनों की गुडिया ,
मंद मंद बयार सी वो कड़ियाँ ...
वो बस्ते को टांग स्कूल जाना
चूने से सड़क पर रेखाएं बनाना .
फिर एक दिन सब पीछे छूट गया ,
एक नया भेष मिला ...
नया आँगन, नया देश मिला
कुछ जैसे टूट गया .
हौले हौले खुद को सम्हाला,
साँसों को थामा ही था
कि एक नया खूंटा गड गया
नन्हा सा पौधा गोद खिल गया .
सींच कर उसको
बंधाया हौसलों को ढाढस ,
कि अब तो पहचान न बदलेगी
ये रुत अब तो न ढलेगी .
वक़्त की सुइयां बढती रहीं ,
आवाजें धीरे धीरे घटने लगीं
तसवीरें भी धुंधलाने लगीं
धीरे धीरे जेहन से मिटने लगीं .
कतरे आंसू के अब सूख गए
एहसासों के समंदर हिलने लगे
बदलने लगे सब ख्वाब ,
वजूद को चेहरे मिलने लगे .
क्या कहूं पहचान क्या है ,
वो तो चली गयी जाने कब ...
यादें और बूढी हो गयी हैं .
प्रश्न मौन बन मुझ से ही पूछता है
क्या यही अस्तित्व है ?
- विनय मेहता .
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