सोमवार, 19 मार्च 2012

मैं... मेरा वजूद



Childhood Paintings - The Orchard  by Thomas Cooper Gotchकल शाम                                                        
खुद से खुद को कुरेद के 
सामने बिठा लिया ...
फिर पूछा 
क्या मायने हैं ?
किस मोड़ पर ये खड़ी है तू ?
ज़िन्दगी ये कहाँ आ पड़ी है तू ?


टप टप की आवाज़ 
सन्नाटे को चीर गयी .
अस्तित्व की पर्त दर पर्त छील गयी .
वक़्त की किताब के सब सफे खुल गए ...


वो बाबुल की गोद में झूल जाना ,
चिंदी चिंदी सी सपनों की गुडिया ,
मंद मंद बयार सी वो कड़ियाँ ...
वो बस्ते को टांग स्कूल जाना 
चूने से सड़क पर रेखाएं बनाना .


फिर एक दिन सब पीछे छूट गया ,
एक नया भेष मिला ...
नया आँगन, नया देश मिला
कुछ जैसे टूट गया .


हौले हौले खुद को सम्हाला,
साँसों को थामा ही था 
कि एक नया खूंटा गड गया 
नन्हा सा पौधा गोद खिल गया . 


सींच कर उसको 
बंधाया हौसलों को ढाढस ,
कि अब तो पहचान न बदलेगी 
ये रुत अब तो न ढलेगी .


वक़्त की सुइयां बढती रहीं ,
आवाजें धीरे धीरे घटने लगीं 
तसवीरें भी धुंधलाने लगीं 
धीरे धीरे जेहन से मिटने लगीं .


कतरे आंसू के अब सूख गए 
एहसासों के समंदर हिलने लगे 
बदलने लगे सब ख्वाब ,
वजूद को चेहरे मिलने लगे . 


क्या कहूं पहचान क्या है ,
वो तो चली गयी जाने कब ...
यादें और बूढी हो गयी हैं .
प्रश्न मौन बन मुझ से ही पूछता है 
क्या यही अस्तित्व है ?


                   - विनय मेहता .

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