चला ही जा रहा है कारवां कहाँ आखिर?
किसी को क्या पता जिस्मों की इस रवानी में
कितनी रूहों ने साथ छोड़ा है ?
बूँद का रेत में धीमे से जज़्ब हो जाना
कुछ इस अंदाज़ में ही वक़्त की सियाही ने
उम्र की राह पे अपना निशाँ छोड़ा है .
तमाम जिस्म जो शामिल हैं इस रवानी में
भला कोई उनमे खरीदार यहाँ है की नहीं ?
कोई है जो अपने साथ ले के आया है
अपनी उम्र का, एहसास का हिस्सा थोडा ,
चाँद गफलत भरे अलफ़ाज़ के एवज ही सही
बेच तो दें, पै ऐसा कोई बाज़ार नहीं .
उस मुसाफिर की राह कितनी तंग सही
फिर भी छोड़े हैं उसने जलते हुए पैरों के निशां
कई आतिशफिशां हैं दफन जिन निशानों में
धुल की पर्त तले सुलगते हैं फफोले अब तक
ताकि फिर कोई गुज़रे इधर से भूले से
तो उनकी गर्मी से मालूम उसको हो जाए
कोई गुज़रा है अकेला इधर से पहले भी
जो अपने जिस्मोजां का खून कर के गुज़रा है
छिड़क के खून वही तो उफक के दामन पर
कह रहा था चीख चीख कर ज़माने से
आने वाली सुबह का मेरे हाथों क़त्ल हुआ ...
- पुष्पेन्द्र वीर साहिल .
किसी को क्या पता जिस्मों की इस रवानी में
कितनी रूहों ने साथ छोड़ा है ?
बूँद का रेत में धीमे से जज़्ब हो जाना
कुछ इस अंदाज़ में ही वक़्त की सियाही ने
उम्र की राह पे अपना निशाँ छोड़ा है .
तमाम जिस्म जो शामिल हैं इस रवानी में
भला कोई उनमे खरीदार यहाँ है की नहीं ?
कोई है जो अपने साथ ले के आया है
अपनी उम्र का, एहसास का हिस्सा थोडा ,
चाँद गफलत भरे अलफ़ाज़ के एवज ही सही
बेच तो दें, पै ऐसा कोई बाज़ार नहीं .
उस मुसाफिर की राह कितनी तंग सही
फिर भी छोड़े हैं उसने जलते हुए पैरों के निशां
कई आतिशफिशां हैं दफन जिन निशानों में
धुल की पर्त तले सुलगते हैं फफोले अब तक
ताकि फिर कोई गुज़रे इधर से भूले से
तो उनकी गर्मी से मालूम उसको हो जाए
कोई गुज़रा है अकेला इधर से पहले भी
जो अपने जिस्मोजां का खून कर के गुज़रा है
छिड़क के खून वही तो उफक के दामन पर
कह रहा था चीख चीख कर ज़माने से
आने वाली सुबह का मेरे हाथों क़त्ल हुआ ...
- पुष्पेन्द्र वीर साहिल .
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