सोमवार, 30 अप्रैल 2012

सर्जना के क्षण.


एक क्षण भर और 
रहने दो मुझे अभिभूत,
फिर 
जहाँ मैने संजो कर और भी सब रखी हैं 
ज्योति शिखायें 
वहीं तुम भी चली जाना 
शांत तेजोरूप! 


एक क्षण भर और, 
लम्बे सर्जना के क्षण कभी भी हो नहीं सकते! 
बूँद स्वाति की भले हो 
बेधती है मर्म सीपी का उसी निर्मम त्वरा से 
वज्र जिससे फोड़ता चट्टान को, 
भले ही फिर व्यथा के तम में 
बरस पर बरस बीतें 
एक मुक्तारूप को पकते!


          - अज्ञेय .

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