सोमवार, 30 अप्रैल 2012

कविता हूँ... यूँ ही कलम की नोक पर नहीं आती!


मन की गांठे खोल कर
थोड़ा सा झुकना होगा,
अक्षरों को सहेज कर
उठाने के लिए...


समय की आंच में
थोड़ा सा पकना होगा,
बहना होगा निर्विकार
नदिया कहलाने के लिए...


फिर मिलूंगी मैं तुम्हें
अक्षर अक्षर में मुस्काती,
कविता हूँ...
यूँ ही कलम की नोक पर नहीं आती!


उबड़-खाबड़ अनजान
रास्तों पर चलना होगा,
उठाने होंगे ठोस कदम
आगे राह बनाने के लिए...


अमिट अनाम सा दर्द
सहजता से सहना होगा,
उठाने होंगे गम सभी
खुशियों का गाँव बसाने के लिए...


फिर मिलूंगी मैं तुम्हें
अक्षर अक्षर में मुस्काती,
कविता हूँ...
यूँ ही कलम की नोक पर नहीं आती!


भूली बिसरी यादों की गलियों को
छू कर गुजरना होगा,
मृत्युतुल्य कष्ट उठाने होंगे
साथ जीवन का पाने के लिए...


कोटि-कोटि नयनों के आंसू चुनते
कभी नहीं थकना होगा,
कुछ सच्चे सुन्दर ख़्वाब सजाने होंगे
और जुट जाना होगा उन्हें बचाने के लिए...


फिर मिलूंगी मैं तुम्हें
अक्षर अक्षर में मुस्काती,
कविता हूँ...
यूँ ही कलम की नोक पर नहीं आती!

     - अनुपमा  पाठक 

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