रविवार, 29 अप्रैल 2012

सृजन कभी नहीं थमता .

तलाशता खुद को 
मैं आज निकला ...
दूर तक उफनते 
अँधेरे के समंदर में .                                   

देखा 
एक पिंजर ढो रहा था 
ज़िन्दगी की भारी गठरी
लड़खड़ाते क़दमों से ...

देखीं 
भूख से बेहाल आंखें  
और एक रोटी के टुकड़े के लिए 
खून बहता ... 

और कुछ आगे बढ़ा तो 
अस्मत कहीं नीलाम होती देखता हूँ  ,
कहीं पर इंसानियत की 
लग रही हैं बोलियाँ ,
और कहीं हंसी ठहाकों में 
बचपन वीरान देखा ...

दर्द का एक घूँट कड़वा 
गले में अटका ही था 
कि देखता हूँ 
एक कोने में खड़ी , 
लाचार सी, बूढी सी वो 
अपने मैले, फटे आँचल में समेटे 
जैसे कोई चाँद हो ....

एक नन्ही जान ही तो थी ,
पीठ पर बस्ता लगाये 
जैसे उस की आन ही तो थी ,
खिलती हुई मीठी मुस्कान ही तो थी .

तब जा कर मैं ये समझा 
हौसले कभी डूबते नहीं हैं 
मुश्किलों के आगे झुकते नहीं हैं ...
अँधेरा लाख उफान मारे 
सितारे टिमटिमाने से रुकते नहीं हैं ,

निराशा के बाद फिर 
सृजन होता है आशा का ....
सृजन कभी नहीं थमता .

          - विनय मेहता .





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