सोमवार, 30 अप्रैल 2012

नज़्म की तामीर

                                                                                         
तुमने देखा है कभी
एक शायर
जब नज़्म को जन्म देता है...

आवाज़ गले में जम जाती है
ज़हन में उबलती हैं सैकड़ों ही दूसरी आवाज़ें
हाथो की नमी बह कर
काग़ज़ तक आ जाती है
आँखों में दर्द सिसकता है
और होठों के साहिलों पर
एक लफ़्ज़ों का सुनामी बस एहसास निगलने को बेताब

सर आता है पहले बाहर
या फिर पांव कभी... 
जब नज़्में उलटी पड़ जाती हैं
अशार घुटनों के बल सरकते हैं...
मतला आँखें मीचे शायर की गोदी में दिखता है


और सुलगती है यादों की चिल्लम ज़रा
धीरे-धीरे फिर धड़ दिखता है
नज़्म की सांसें सुनाई पड़ती हैं
बंद मुट्ठी से लफ्ज़ गिरने लगते हैं


और फिर पांव उतरते हैं काग़ज़ पर
खून में सने हाथों से
शायर एक नज़्म का टुकड़ा जुदा करता है ज़हन से
उसे अपना नाम देता है
हाथ फिराता है ज़रा सर पे 
अपने तखल्लुस का एक टीका लगाता है...

तुमने देखा है कभी
एक शायर
जब नज़्म को जन्म देता है
एक ज़िन्दगी तामीर होती है...


                 - देव .

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