गुरुवार, 7 जून 2012

सागर.....मेरे दोस्त

सागर .......
तुम्हे याद है
हमारा मिलना पहली बार
जब मै इत्ता सारा पानी देख
चिपक गयी थी
पापा के पैरों से
और पीछे क़दमों से चलते
कस कर आँखे बंद किये
ही तुमसे मिल पाई थी
तुम्हारी उफनती गरजती उत्ताप लहरें
सब समेटने को आतुर
बहाने को तत्पर
बहुत दिनों तक डर लगता रहा
तुम मुझे ले जाना चाहते हो
कई रातों की नींद में तुम पीछा करते रहे
और एक दिन डरते डरते ही सही
तुमसे दोस्ती हो गयी
तुम बसने लगे शरीर के किसी उजाड़ कोने में
उफनते रहे मेरे अन्दर
पतीले के दूध की तरह
कभी अपनी कोर ना लांघी
तुम देते रहे सन्देश
हद से बढ़ना तूफ़ान ही लाता है
और ये भी कि ज्वार भाटा के दिन तय होते हैं
एक सीमा में रह कर
तुमने नदियों को गले लगाया
सोख ली उनकी मिठास
और खुद को खारा बनाया
सबकी सुनी पर दर्द किसी को ना बताया
तुम्हारे किनारे आ
सारे शोर थम जाते है
तुम्हारी लहरे जब तट पर बुलबुलों में बदलती
तो सिखा जाती जीवन का सच
कितना छोटा हो सकता है जीवन
और ये कि
कई छोटी छोटी लहरें मिल कर
सहमा सकती है किसी को
ये भी कि लगातार आघात
चट्टानों को छील कर चिकना कर सकते हैं
और
हारना हल नहीं
हिस्सा है
जीने के अभ्यास का....


        - राजलक्ष्मी शर्मा.

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