रविवार, 22 जुलाई 2012

बरखा .

खेतों पर गिरती हो  
जब बूंदों की शकल में
तो मंदिर से लौटी
माँ के माथे लगे
उस सिंदूरी बिंदी की तरह
लगती हो
जैसे चूम रही हो
मिटटी को
दे रही हो आशीष
पूरा फ़ल देना
इनकी मेहनत का


कभी
झिरमिरा कर
तुम बरस जाती हो
आँगन में
शगुन के गीतों की तरह
अपनी ढोलक में
अपने सुर लगाते हुए
धूप में बरसती हो
तो 'पी' की याद दिलाती हो
छत पर सूखते कपड़ों को बटोरते
उनकी वो बरजोरी
जब समेट लिए थे कुछ पल
और बिना तुमसे पूछे
संजो लिए थे मन में


कभी सारे आंसू
समेट लेती हो
सखी बन कर
चलते चलते दे जाती हो
ऊन के बण्डल
जैसी आशाएं
सपने बुनने को


कभी रीते हाथ
नहीं आयी तुम
और बिना दिए
कभी गयी नही
ओ बारिश की बूंदों
जाते जाते
छोड़ जाती हो नमी
और अपनी महक
हिना की तरह ...


   - राजलक्ष्मी शर्मा .

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