चेहरों की बस्ती में
सारा दिन होठों से
लफ्ज़ गिरा करते हैं ...
आपस में टकराते,
कभी शोर करते हैं ...
कभी टूट जाते हैं .
मन के घर में बैठी,
सब कुछ ख़ामोशी से सुनती है
'ख़ामोशी'.
टूटे हुए लफ़्ज़ों की
किरचें चुभती हैं
तब... देर तलक
बूँद-बूँद
खून टपकता है ...
पके हुए फोड़े सा
दर्द भी धपकता है .
मलहम से हाथों से
गड़ी हुई किरचों को चुनती है
'ख़ामोशी'.
- मीता .
सारा दिन होठों से
लफ्ज़ गिरा करते हैं ...
आपस में टकराते,
कभी शोर करते हैं ...
कभी टूट जाते हैं .
मन के घर में बैठी,
सब कुछ ख़ामोशी से सुनती है
'ख़ामोशी'.
टूटे हुए लफ़्ज़ों की
किरचें चुभती हैं
तब... देर तलक
बूँद-बूँद
खून टपकता है ...
पके हुए फोड़े सा
दर्द भी धपकता है .
मलहम से हाथों से
गड़ी हुई किरचों को चुनती है
'ख़ामोशी'.
- मीता .
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