सोमवार, 6 अगस्त 2012

नींदों में सफ़र ....



बहुत कम 
निशानियाँ मिली थी तुम्हारी ...
शताब्दियों पहले
जैसे 
बहुत तेजी से 
तुम चले गए हो मुझे छोड़ कर ,
हर जनम उन खूबियों में से 
कुछ भूलती जा रहीं हूँ ...
गहरी नींद की सीढियां उतरते 
किसी दिन पाँव फिसला है 
और साकार हो जाते हो तुम .


एक  बेचैनी  बढती है , 
कई अतृप्त भाव जागते हैं ,
मै जीने लगती हूँ 
कोई देवत्व काल 
उस नींद में 
क्षण भर को मिले 
तुम्हारे  सामीप्य 
में जी लेती हूँ 
एक पूरा जीवन ...

जागने पर
फ़िर विस्मृति  
हावी हो जाती है 
पर आने वाले कई दिनों तक 
पूरी सृष्टि 
एक पवित्र स्थान लगती है ...
और
मेरे शरीर में बसी 
तुम्हारी उपस्थिति की देह गंध 
मंदिर में सुलगते 
लोबान और धूप की याद दिलाते है .

             - राजलक्ष्मी शर्मा .


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