सोमवार, 6 अगस्त 2012

ग़ज़ल .


इसी हसरत में मैंने कर लिया खूनाब आँखों को 
के शायद नींद आ जाये मेरी बेख्वाब आँखों को .

उसी को देखना और बस उसी को देखते रहना 
न जाने आयेंगे कब बज़्म के आदाब आँखों को ?

कोई भी दर्द का मौसम यहाँ यकसाँ नहीं रहता 
कभी सहराँ सताते हैं, कभी सैलाब आँखों को .

मैं गहरी सोच में था और कोई भीगा हुआ लम्हा 
न जाने कर गया फिर आ के कब सैराब आँखों को .

वो जिन में होश का हर इक सफीना डूब जाता है 
कभी हम से भी तो मिलवाओ उन गिरदाब आँखों को .

अगर ताबीर से महरूम ही रहना था; शाद: इनको 
तो फिर क्या सोच कर बख्शे गए हैं ख्वाब आँखों को .

            - खुशबीर सिंह शाद .  

कोई टिप्पणी नहीं:

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...