बुधवार, 22 अगस्त 2012

खामोशी / The Silence


     शोर की एक नदी है ज़िन्दगी  ... मजबूरी है बहना, कभी धारा के साथ ...तो कभी धारा से उलटे। बहते बहते किसी टापू सी मिलती है ख़ामोशी ...घडी भर सुस्ता लेने को ...और फिर, वही ... शोर की नदी। 
               शब्द, जो हमने बनाये अपनी भावनाएं व्यक्त करने के लिए, क्योंकि निहायत ज़रूरी था जुड़ना ...एक दूसरे से ...आखिर तो मनुष्य सामाजिक प्राणी है। वही शब्द, जो रेशम की डोर जैसे हमें बांधते ....कब नुकीले पत्थर बन गए ...और हमने सीख लिया एक दूसरे को लहुलुहान करना, ये हम खुद भी नहीं जान सकते !
Tempest में Caliban कहता है -
“You taught me language, and my profit on't
  Is, I know how to curse”
 .

दौडती भागती इस ज़िन्दगी में इतने मसरूफ हैं हम शब्दों के शोर को सुलझाने में, कि भूल चले हैं खामोशी को ... जब शब्दों को ही नहीं समझ पाते हैं तो -          "मौन !!
                  समझे कौन ?
                    बांचे कौन ?"

चिरंतन के इस अंक में हमने एक छोटी सी कोशिश ज़रूर की है इस मौन को समझने-समझाने की ... उसे शब्दों में पिरोने की ... आइये आज बांचते हैं ... खामोशी !!

                      - मीता .
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Master's Category में हम लाये हैं श्री खुशबीर सिंह शाद जी की ये बेहतरीन ग़ज़ल ... शुरुआत करते हैं आज के सफ़र की  -
ग़ज़ल ...


ज़र्फ़ मेरा देख सब कुछ देख के खामोश हूँ 
किस कदर है शोर मुझमें, किस कदर खामोश हूँ .

मेरी खामोशी मेरा रद्द ए अमल हरगिज़ नहीं 
मत समझना तेरी जानिब हूँ अगर खामोश हूँ .

तुने ही तसहीर कर दी ग़म की सब के सामने 
मैं तो इस शिद्दत में भी ऐ चश्म ए तर खामोश हूँ .

जाने कैसी बेहिसी मुझ पर मुसल्लत हो गयी ?
सर ब सर जलता हूँ लेकिन सर ब सर खामोश हूँ .

ऐ मेरी मजरूह गैरत, दरगुज़र कर दे मुझे 
तेरा मुजरिम हूँ, तेरे इस हाल पर खामोश हूँ .

शाद मेरे गिर्द बे आहंग आवाजों का शोर 
और मैं हर इक सदा से बेखबर खामोश हूँ .

        - खुशबीर सिंह शाद .

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मौन ... 

जो नहीं बोलता 
सदा रहता है मौन 
प्रिय की निद्रा में 
लीन से चिरलीन 
आगामी कल में 
वही बचता है 
जैसे वाचाल गोपियाँ 
अनाम-लुप्त रह गयीं 
बची रही सिर्फ राधा .

     - दिनेश द्विवेदी .

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खामोशियों के मायने ...


कई बार चुप बैठना 
और कुछ ना बोलना 
इर्द गिर्द आवाजों के घेरे में 
अपनी खामोशियों को बहाना 
अच्छा लगता है ...

और 
अच्छा लगता है 
जब तुम 'interpreter' की तरह 
मेरी खामोशियों का अनुवाद करते हो 
अपने अर्थ निकालते हो 
और बुद्धू सी मैं 
सोचती हूँ 
क्या यही अर्थ रहा होगा !!

फिर भी 
ज़िन्दगी 
तुम्हें ये मौका मैं देती रहूंगी ...

तुम बोलते रहना 
मैं सुनती रहूंगी ...
खामोशी से 
तुम्हारे दिए अर्थों में 
मायने बुनती रहूंगी .

          - राजलक्ष्मी शर्मा .
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ख़यालों की बस्ती .

खामोश है रात 
खामोश सितारे हैं 
पेड़ पर बैठा पीला चाँद भी 
खामोश है ...

मैं तुम को सोच रही हूँ 
और 
यादें बोलती हैं .

कोई खुशबू 
चली आई है माज़ी से . 
किसी किताब में रक्खा 
कोई फूल 
फिर ताज़ा हुआ है ...

ख़यालों की बस्ती में 
बत्तियां जलती हैं ... बुझती हैं 

ये बस्ती 
जागती तब है 
जब सारे शोर सो जाते हैं ...

मुसलसल 
गूंजती है 
फ़क़त खामोशी .

    - मीता .
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खामोशी के साथ...

कहते हैं ' मौनं सम्मति लक्षणं '
हमसे बेहतर कौन समझता है ये बात !
होता है सब कुछ यहाँ 
'खामोशी के साथ'.

धड़ल्ले से बिक रहा है 
मिटटी - पत्थर 
लोहा - लकड़ी 
ईमान ...
देश ...
मेजों के नीचे 
फैले हैं हाथ ...
'ख़ामोशी के साथ'.

सैकड़ों हो चुके ,
सैकड़ों हो रहे हैं घोटाले ...
किसी को कुछ 
पता नहीं चल पा रहा है,
न कोई पूछ रहा है 
न कोई बता रहा है .
आयोगों की रिपोर्टें 
तहाई जा रही हैं 
ठन्डे बस्तों में 
दिन रात ...
'ख़ामोशी के साथ'.

जान की खैर मना 
साध ली है सबने चुप्पी 
भूल चले हैं लोग 
जम्हूरियत के हक़ हक़ूकात  ...
आदी हो चले हैं अब 
गले गले कीचड में  
डूब डूब जीने के 
'ख़ामोशी के साथ'.

 - ललित मोहन पाण्डे .

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रिश्ता .


मुझे 
तुम चुप ही रहने दो 
अच्छा है, मैं कुछ न कहूं 
और तुम वो सुन लो 
जो तुम सुनना चाहते हो .

वैसे भी 
अब क्या कहना, और क्या सुनना 
जब मैंने कहा था 
तब तुमने कुछ भी सुना नहीं ... 
तुम्हारे जेहन में शोर बहुत था शायद 
और अब 
जब सुनना चाहते हो तुम 
मेरे जेहन में सन्नाटा सा पसर गया है ...

हमारे बीच 
ख़ामोशी का एक रिश्ता बाकी है 
मुझे पूरी शिद्दत से उसे निभाने दो .

        - स्कन्द .
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वो .


हर वक़्त 
चुप चुप ...
बस 
उसकी चूड़ियां खिलखिलाती हैं 
नाक की महीन लौंग 
वैधव्य का गीत गाती है

वो 
नव-यवना मजदूर 
विधवा है 

सर के बोझ से अकड़ी गर्दन 
हवाओं की गलन ...
ठेकेदार की चुभती निगाह 
पेट की भूख 
अकेलेपन का दर्द 
और भी 
जाने क्या क्या 
छिपा लेती है 
वो
अपनी 
लाल चेकदार शाल में .

         - अमित आनंद पाण्डेय . 
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पसरी चुप्पियाँ .


बहुत बार  
सुना है 
उस पहाड़ी पर बैठ कर ...
तुम्हारी आवाजें 
जो पार कर आती हैं 
कितनी बस्तियों की छतें .

बिलकुल पास आ जाते हो 
ऍन ढलते हुए सूरज के सामने ...
कुछ क्षणों तक 
कुछ भी नहीं दिखाई देता 
कुछ भी नहीं सुनायी देता 
सुन्न सी पड़ जातीं हूँ 
अक्सर ...

और 
जब होश आता है 
तो एक चुप्पी 
और एक परिचित अँधेरा पसर जाता है 
मन के कोने कोने तक ...

       - राजलक्ष्मी शर्मा . 

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ख़ामोशी ...

अनमोल है
दिल के रिश्तों की
दुनिया,
यहाँ
मौन संवाद की
परंपरा है!

बादलों से
आच्छादित
है भावविभोर अम्बर,
और
सत्यनिष्ठ
सहनशील धरा है!

विडम्बना ही है-
अंतर अकालग्रस्त
और बाहर,
कृत्रिम संसाधनों से
सज्जित
सबकुछ हरा भरा है!

मानवीय क्रियाक्लापों के
कितने दूरगामी
हैं प्रभाव,
इससे अनभिज्ञ..
कलयुगी चेतना ने
कृत्रिमता को ही तो वरा है!

चलता ही रहता है शोरगुल
ख़ामोशी...
बोल न पाती है,
खो चुके हैं मनभावन शब्द
पर भावों की धरती
अब भी उर्वरा है!

अनमोल है
दिल के रिश्तों की
दुनिया,
यहाँ
मौन संवाद की
परंपरा है!

- अनुपमा पाठक .

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आज हम हमारे मेहमान में आप का परिचय श्री प्रलभ सिंह जी से करा रहे हैं जो एक इन्जीनियर हैं और शौकिया कवितायेँ भी लिखते हैं ... स्वागत है प्रलभ आप का .

वो जब खामोश रहती है ...

वो जब खामोश रहती है 
ढेरों बातें करती है !

उसके होंठ हलके से लरज़ कर 
मुस्कुराते हैं ...
तो गालों पर पड़े गड्ढे 
कई किस्से सुनाते हैं 
पलक उठ कर जो झुकती है,
ढेरों बातें करती है !

कभी कुछ करते करते 
चेहरे से जुल्फें हटाती है 
तो जैसे खुद ब खुद 
कोई कहानी बनती जाती है 
पलट कर देख भर लेती है ...
फिर गर्दन झटकती है, 
ढेरों बातें करती है !

मैं उस से कहता हूँ 
तुम सामने बैठी रहो यों ही ...
मैं तुमको देखते बैठा रहूँ 
तुम चुप रहो यों ही ...
वो कुछ बोले बिना जब 
खिलखिला कर हंसने लगती है,
तो ढेरों बातें करती है !

      - प्रलभ .
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बेजुबान लम्हे ...


कभी देखा है 
शाम के वक़्त 
जब सूरज छिपता है 
बादलों से उतर कर 
एक ख़ामोशी पसर जाती है 
बिना कुछ कहे कितने बेजुबान  लम्हे 
मेरे शानों पर आ टिकते हैं 
और मै बैठी रहती हूँ 
देर तक उन्हें गले लगाये 
शहर की सारी 
बत्तियों के जलने तक 
उन लम्हों को सोचते 
जिसमे काफी कुछ कहा जा सकता था 
पर कहा नहीं गया ...

            - राजलक्ष्मी शर्मा .

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खामोशी ...

चेहरों की बस्ती में 
सारा दिन होठों से 
लफ्ज़ गिरा करते हैं ...
आपस में टकराते, 
कभी शोर करते हैं ...
कभी टूट जाते हैं .

मन के घर में बैठी, 
सब कुछ ख़ामोशी से सुनती है 
'ख़ामोशी'.

टूटे हुए लफ़्ज़ों की 
किरचें चुभती हैं 
तब... देर तलक 
बूँद-बूँद 
खून टपकता है ...
पके हुए फोड़े सा 
दर्द भी धपकता है .

मलहम से हाथों से 
गड़ी हुई किरचों को चुनती है 
'ख़ामोशी'.

       - मीता .
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Presenting this beautiful poem, celebrating Silence in the Master's Category -

 The Word of Silence .




A bare impersonal hush is now my mind,
A world of sight clear and inimitable,
A volume of silence by a Godhead signed,
A greatness pure, virgin of will.

Once on its pages Ignorance could write
In a scribble of intellect the blind guess of Time
And cast gleam-messages of ephemeral light,
A food for souls that wander on Nature's rim.

But now I listen to a greater Word
Born from the mute unseen omniscient Ray:
The Voice that only Silence's ear has heard
Leaps missioned from an eternal glory of Day.

All turns from a wideness and unbroken peace
To a tumult of joy in a sea of wide release.

                      - Aurobindo .
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सरगम में आज आप के लिए लाये हैं निदा फाजली जी की लिखी और जगजीत सिंह जी की गाई ये दिल छू लेने वाली ग़ज़ल -
'मुंह की बात सुने हर कोई ...'




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