आज गाँव जाने वाली इस पगडंडी पर
अकेले खड़ी हूँ ...
याद आता है जब इसकी दहलीज पार कर
निकली थी
यही पगडण्डी थी
जो शहर को जाने वाली बस तक
खींच गयी थी मेरे साथ,
और कोई नहीं था।
बमुश्किल
हाथ छुड़ा कर
हाथ छुड़ा कर
सारे सपने बटोर कर
बैठ गयी थी शहर ले जाने वाली
उस गाड़ी में ..
रात जब नींद नहीं आती थी
ख्यालों में आती थी यही पगडण्डी
और विपरीत से मौसम में
उठ खड़े होने का साहस देती थी।
आज मैं हूँ फ़िर गाँव के रास्ते
और स्वागत में वही पगडण्डी
मेरे सपने पूरे हुए या अधूरे
इसे नहीं पता
ये आतुर है
किसी ''माँ' की तरह
बस स्नेहाशीष बरसाने को
खुश है ...
मै भी सफ़र के बाद लौट आयी हूँ
वहीँ ..
जहाँ से जड़ें जुड़ीं हैं .
- राजलक्ष्मी शर्मा .
- राजलक्ष्मी शर्मा .
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