सोमवार, 29 अक्तूबर 2012

कविता जानती है .


कविताओं के साथ सम्बन्धों की शरुआत 
तुम्हारे सामान्य दु:खों की स्वीकारोक्ति से होगी .
वे मामूली दु:ख जिन्हें इतना भोगा गया
कि वे आम हो गए .
दु:ख, जिन्हें भोग कर तुम सुन्न हो गए ,
कविता उन्हें सुनते ही संजीदा हो जायेगी .

मसलन, बताओ उसे कि तुम नहीं देख पाए
कब और कैसे तुम्हारे बच्चे 
किवाड़ों की सांकल पकड़ कर खड़े हुए 
और चलना सीख गए .
कब तुम्हारी जवान बेटी को 
बिलकुल तुम्हारी तरह कुछ दांयी ओर मुड़ी 
नाक वाले लडके से प्यार हो गया .
अगर तुम उससे सिर्फ इतना कहो
जीवन के इस पड़ाव में तुम अकेले रह गए 
कविता, गिलहरी के बालों से बना ब्रश लेकर 
तुम्हारे चहरे की झुर्रियों पर जमी धूल साफ़ करेगी 
मानो तुम खुदाई में मिला मनुष्यता का एकमात्र अवशेष हो .

तुम बताओ अपनी कविताओं को 
कि बचपन से तुम इतने निराशावादी नहीं थे .
अपने बाड़े में बोये थे तुमने बादाम के पेड़
जिन्हें अकाल वाले साल में बकरियां चर गयी ,
कि उस शहर में जब तुमने किराये पर कमरा लिया 
मकान मालिक ने मना किया था 
कि तुम खिड़कियाँ नहीं खोल सकते ,
जबकि कविता जानती हैं 
तुम बिना दरवाजे खोले जिन्दगी गुजार सकते हो 
पर खिडकियों का खुलना कितना जरूरी था तुम्हारे लिये .

तुम बैठो कविता के साथ बगीचे के उस कोने में
जहाँ सबसे कम हरी घास हो ,
जहाँ अरसे से माली ने नहीं की 
मेहंदी के पौधों कि कटाई-छटाई ,
जहाँ कुर्सिओं के तख्ते उखड़े पड़े हो ,
उस जगह जहाँ सबसे कम चहल-पहल हो 
और बताओ उसे
कि जब तुम जीने के मायने समझे 
तुम अस्सी पार जा चुके थे .

कविता जानती है
कि इन आम से दु:खों को भोगना 
उतना ही मुश्किल है जितना 
हादसे में मारे गए पिता के 
अकड़ चुके जबड़े में उंगली फंसाकर गंगाजल उडेलना ,
और हुचक-हुचक कर रोती
विधवा हो चुकी माँ को चुप कराना .

कविता जानती है यह तथ्य 
कि सारी कविताएँ किसी अनसुने दु:ख का 
विस्तृत ब्यौरा हैं .

- अहर्निशसागर .

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