शुक्रवार, 9 नवंबर 2012

चरागाँ .


एक - दो भी नहीं छब्बीस दिये
एक - इक कर के जलाए मैंने।

इक दिया नाम का आज़ादी के -
उसने जलते हुए होठों से कहा
चाहे जिस मुल्क से गेहूं मांगो
हाथ फैलाने की आज़ादी है।

इक दिया नाम का खुशहाली के -
उसके जलते ही ये मालूम हुआ
कितनी बदहाली है ...
पेट खाली है मिरा
जेब मेरी खाली है !

इक दिया नाम का यकजहती के -
रौशनी उस की जहाँ तक पहुंची
कौम को लड़ते झगड़ते देखा ...
माँ के आँचल में हैं जितने पैबंद
सब को इक साथ उधड़ते देखा।

दूर से बीवी ने झल्ला के कहा
तेल महंगा भी है , मिलता भी नहीं
क्यों दिए इतने जला रक्खे हैं
अपने घर में न झरोखा , न मुंडेर
ताक सपनों के सजा रक्खे हैं ...

आया ग़ुस्से का इक ऐसा झोंका
बुझ गए सारे दिये ...
हां , मगर एक दिया , नाम है जिसका उम्मीद
झिलमिलाता ही चला जाता है।

          - कैफ़ी आज़मी .

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