शुक्रवार, 9 नवंबर 2012

दीप देहरी जलते - जलते .


स्वप्न संजोते रात बीत गयी
बीत गया दिन चलते - चलते ,
पाहून कोई द्वार न आये
दीप देहरी जलते - जलते।

मंगल कलश हुए सब रीते ,
बिखरे रोली - अक्षत - चन्दन ,
बाहर - भीतर घिरा अँधेरा
विपिन हो गया मन का नंदन।

आस संजोये उम्र बीत गयी
नैन भरे हैं ढलते - ढलते !

पाहून कोई द्वार न आये
दीप देहरी जलते - जलते।

        - नत्थू सिंह चौहान .

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