स्वप्न संजोते रात बीत गयी
बीत गया दिन चलते - चलते ,
पाहून कोई द्वार न आये
दीप देहरी जलते - जलते।
मंगल कलश हुए सब रीते ,
बिखरे रोली - अक्षत - चन्दन ,
बाहर - भीतर घिरा अँधेरा
विपिन हो गया मन का नंदन।
आस संजोये उम्र बीत गयी
नैन भरे हैं ढलते - ढलते !
पाहून कोई द्वार न आये
दीप देहरी जलते - जलते।
- नत्थू सिंह चौहान .
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें