बुधवार, 7 नवंबर 2012

कल ...


  • बीती रात जब मैं लौट आया था ओस मे भीग रही छत से, मुंह उठाये खड़ी मुंडेरों पर कुछ मटियाले दीये टिमटिमा रहे थे, जबकि चुक गया था उनका तेल...... उनकी बाती राख हों चुकी थी,फिर भी अपनी पेंदी पर सिमट जाने के बावजूद वो जले जा रहे थे...... यद्यपि उस वक़्त उनकी रौशनी लुभावनी भी नहीं शेष थी, फिर भी.........
    रौशनी देना भी कितना त्रासद होता है ना......... आपने लगातार जलते जाना होता है चुक जाने तक,और एक रोज़ अपनी ही जड़ों पर अपनी ही राख सिमट आती है!
    कल ...
    कल फिर भी शेष रहेगा अंधियारा..... 
    कल फिर आएगी कोई घोर काली अमावस
    हाँ पर
    दीये भी आते रहेंगे
    अपनी शिराओं पर आग लगाए ..... जिद्दी दीये,
    ना अँधियारा कभी ख़तम होगा
    और ना ही दीये अमर होंगे
    क्रम चलता रहेगा......
    होने और ना होने के बीच ....... 
    प्रकाशमान होने की त्रासदी नए नए प्रतिमान गढ़ेगी!

              - अमित आनंद .

    कोई टिप्पणी नहीं:

    Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...