शनिवार, 10 नवंबर 2012

जलाओ दिए पर ....


दीपावली त्यौहार नहीं पर्व है। पर्व और त्यौहार में बहुत अंतर होता है। त्यौहार मनाया जाता है और पर्व से पावन हुआ जाता है। दीपावली ' तमसो मा ज्योतिर्गमय ' का पर्व है - अन्धकार से प्रकाश की ओर जाता हुआ ... धरती से आसमान की तरफ बहती हुई अन्धकार को चीरती , मानव ह्रदय के प्रकाश की एक चपल रेखा जो भेद देती है महा अमावस्या के अंधकारमय सीने को। जब महादेवी कहती हैं -
" मधुर मधुर मेरे दीपक जल
  युग युग प्रतिदिन , प्रतिक्षण , प्रतिपल
  प्रियतम का पथ आलोकित कर ."
तब महादेवी का प्रियतम निजी स्तर से उठ कर विश्व के विराट रूप को ग्रहण करता है। वह कोटि कोटि जनों के अंधकारमय पथ को आलोकित करते हुए आशा और विश्वास के सूर्यलोक की तरफ प्रस्थान करता है। लौकिक धरातल पर प्रचलित धारणाओं के अनुसार श्री राम के अयोध्या आगमन पर असंख्य दीपमालिकाओं का जलाना अब तक क्यों चला आ रहा है ? क्योंकि यह वह प्रतीक है जो आज भी उतना ही सामयिक है जितना कि उस युग में था। आज भी गांधी के राम और उन के कहे राम - राज्य की परिकल्पना उन्ही नन्हे - नन्हे टिमटिमाते दियों की लौ में छिपी हुई है। महावीर स्वामी का निर्वाण भी इसी आलोक पर्व पर हुआ यानि शांकर दर्शन के अनुसार माया के अंधकारमय बंधन से मुक्त हो ब्रह्म के आलोकमय साम्राज्य में आत्मा का प्रवेश।

           प्रकाश के इस पावन पर्व की शुभकामनाएं .
                                                                 - दिनेश द्विवेदी .
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इनकी कलम से -

 कल्पना ही सही, कैसी है?


                         
घनीभूत हो उठते अन्धकार में
दूर कहीं एक ज्योति:स्फुर्लिंग ने 
तम-आवरण को चीर कर सर उठाया
और सहस्रों प्रकाश-वीथिकाएँ जन्म ले बैठीं !

एक अकेली आलोक-रश्मि 
और अन्धकार से जूझने की इतनी जीजिविषा !
मानो एक आवाहन ..
                                 है निखिल विश्व को उदबोधन
                                कर दो समस्त तम का शोधन...

बस,
अमावस की कालिमा को पल भर में विलोपित करती
कितनी उर्मिलायें तैल-पात्रों में झिलमिला उठीं ?
ज्ञात नहीं 
जैसे अमावस की रात्रि में दसों दिशाओं में सूर्योदय हुआ हो !
यही तो दीपावली की गरिमा, उसका सौंदर्य है !!

आज कोई कोना ऐसा नहीं 
जो प्रकाश-निधि-हीन हो
क्या मनु-पुत्र आज निशा होने ही न देगा?

'तमसो मा ज्योतिर्गमय'
महाप्राण से ये निवेदन - आज अर्थ खो बैठा है
किधर चलें - नहीं सूझता,
सर्वत्र तो प्रकाश बिखरा है...

तो क्या करें - ठहर जाएँ?

कदापि नहीं.
निमिष भर के इस उत्सव को अंतिम सत्य तो नहीं कह सकते.
अभी चलना होगा....

प्रश्न- कहाँ?
उत्तर - मौन

दूर कहीं .......धूल सी उड़ी  
नन्हे क़दमों की आहट...
कलुष-रहित ह्रदय में 
उष्ण-स्नेह-स्पंदन लिए
वह नन्हा
जिधर जा रहा है - वहीँ चलें

अपने अन्तर्तम की सारी कालिमा, सारा द्वेष समेटें
और छोड़ आयें....
दूर..... क्षितिज के उस पार
ताकि वर्ष भर दीवाली हो ! 

कल्पना ही सही, कैसी है?

                  ..... पुष्पेन्द्र वीर साहिल .
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अमावस का अँधेरा
        दियों से दूर नहीं होता .

क्या कभी 
किसी राम ने 
किसी रावण को मारा था ?

रावण तो आज भी जिन्दा है 
और उसके दस सर कट कर  
हर तरफ बिखर गए हैं .
कभी वो
आतंकवाद बन कर उभरता है  ,
कभी वो भ्रटाचार बन कर ,
और उसका दमन जारी है .

और राम 
वो है कहाँ  !!
अब कौन सा वनवास काट रहे हैं  
की सिर्फ उनकी खडाऊं ही नजर आती है  .
भरत की पूछो तो 
वो राम को ढूँढने निकले हैं 
और प्रजा प्रताड़ित हो रही है .

सीता 
उसकी तो अग्नि परीक्षा 
अब जन्म लेने से पहले ही हो जाती है ,
और उसको जन्म लेते ही  
धरती में समाना पड़ रहा है .
जनता का पसीना 
स्वित्ज़रलैंड की लंका मैं कैद है ,
और राम का नाम ले कर
विभीषण उस पर राज कर रहे है .

और महंत 
भोली भली जनता को 
कलयुग  की घुट्टी पिला रहे है .
फिर कैसा दशहरा 
फिर कैसी दिवाली 
अमावास का अँधेरा
दियों से दूर नहीं होता .



- स्कन्द .


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हम तुम .
                                
                                   

हम दीप जला कर बैठे हैं, तुम साथी ईद मना लेना,
हम खील बताशे खाते हैं, तुम शीर हमारी खा लेना।

जगमग रोशन जब उसका, सारा आंगन हो जाये,
मेरा घर भी पास खड़ा धीमे धीमे मुस्काये,
हिन्दू मुस्लिम मुद्दों के यहाँ नहीं होते परचम,
मेरी गलियों में आओ देखोगे अनमोल रसम,
मेरे सूने घर का, आंगन रोशन वो करता है,
मेरे घर लक्ष्मी आये, सदा जतन वो करता है।

उसका मेरे घर आकर भेली का टुकड़ा लेना,
मेरा उसके घर जाकर मीठी वो गुजिया लेना,
हम दीप जला कर बैठे हैं, तुम साथी ईद मना लेना,
हम खील बताशे खाते हैं, तुम शीर हमारी खा लेना।
                         
                                      ..... इमरान खान ' ताइर '.

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नीलम चिरंतन के साथ पहली बार जुडी हैं . उनका बहुत स्वागत है -

दीवाली ...


सुबह:

   सुबह उठते ही
   आसमान में सूरज
   सावन का झूला झूलता
   अपने कानो पर फटाके लगाए
   ज़मीन को भी अपनी तपिश देता है..
 
   अम्मा, रंग फर्श पर बिखेर देती है
   प्रक्रति को अपने आँचल से निकाल
   कर आँगन में छोड़ती हुई ...

   छोटू,यहाँ वहाँ चींटियों
   को न्योता देता
   लड्डू के मोती गिराता
   हुआ


शाम..

 ढलती शाम ने आसमान में
 रंगोली बिखेर दी ..
 दीवाली उसे भी मनानी है

सूरज मुस्कराता हुआ
तारो को बुलाता हुआ
छुप गया उनसे आँख
मिचोली के लिए ...

रात :

  आसमान में आग लग गयी
  सागर ज़मीन से उपर की तरफ
  मूड गया ...
  समझ ना आए ये ज़मीन है
  या आसमान , रोशनी में
  जलते हुए ...

प्रेम :

    घर घर की दीवारे मीठी हो गयी
    नमक का पानी धूलकर बहा गया
    लगता है रंग रोगन, चाशनी से हुआ

    पड़ोस की छत अब सबकी है
    जो कल तक सिर्फ़ उनकी थी..

दर्द :

आसमान तक जाती
तेरी याद की रोशनी
यादो को ही रंग बिरंगा करके
अपने घर में छोड़ दिया ...

कड़वाहट को दिल से दूर कर
ज़ुबान को याद से मीठा बना दिया
तेरी यादो की ध्वनि की घंटी से
रब को शुकराना हो गया...

यादो के लिबास उतार कर
नयी यादे बना डाली ...

याद है दीवाली की रात को
ही तुम रोशनी के साथ
रोशनी बन गयी......

ग़रीब:

 घर आज भी वैसा ही है
 जैसा रोज़ था ...
 चाँद तो आज किसी का नहीं
 उसके घर भी आज दीवाली है...

  दीप नहीं, फूल नहीं , पूजा नहीं
  मेरे झोपड़ी के बाहर बस   रात काली है..........

देश :

रावण कई है आज भी
राम कही मिलता नही
लूट लिया अपनी ही सीता को
राम ने रावण बनके
अब दीप जले भी तो क्या ,
अंधेरे मन के तो जाते नहीं.


मगर फिर भी दीवाली उम्मीदो की है
गर्भ में पल रहा भविष्य सुंदर और स्वस्थ है
इसी उम्मीद के साथ दीवाली की सभी को शुभकामनाएँ .

           - नीलम समनानी चावला .

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अंतरदीप



एक दीप अंतस का तुम भी जला लो

सारा आकाश जगमगाता है इस अमाकी रात

मुझे भी याद आती है वो मीठी मीठी बात

तुम भी मेरे संग मुस्कुरा लो

एक दीप अंतस का तुम भी जला लो

बचपन के खुलते है कई बंद द्वार

जब मस्ती का नाम होता था त्यौहार

उन्ही यादों के द्वार तुम भी खटका लो

एक दीप अंतस का तुम भी जला लो

आज मेरे बच्चे करते है वैसा ही व्यव्हार

निश्चिन्त मनछुट्टियाँ और ढेर सारा प्यार

शामिल हो के हम संग तुम भी गुनगुना लो

एक दीप अंतस का तुम भी जला लो

ये ठीक है हवाए तंग मौसम का साथ नहीं

कई परेशानियाँ है पर दुःख की कोई बात नहीं

आज सब बिसरा के उम्मीदों को गले लगा लो

एक दीप अंतस का तुम भी जला लो ...

 -------- और ---------



आपकी 
एक एक मुस्कुराहट 
प्रेम  की 
भरोसे की 
और शुभेच्छाओं की 
और
देखिये 
वो पत्थर की दीवार 
रौशनी से झिलमिला उठीं .

------------ और ---------------

आस्था - दीप .

दीप आस्थाओं के जला लो 
आओ तुम दीपावली मना लो 

कण कण  रची श्रृष्टि ने नवीनता 
नवीन परिधान से खुद को सजा लो 

तम चीर कर रोशन करो चिराग 
अमा "की रात तुम जगमगा लो 

सबका मन कर दे सुगन्धित  
अंतर्मन में कुछ पुष्प खिला लो 

रूठ कर बैठे प्रिय मित्र को 
आज अपने घर बुला लो 

हर त्यौहार मीठे का रिवाज 
अपना मन  मीठा   बना लो

------------- और --------------

तुम हो ...

फुलझड़ी से ज्यादा 

तुम्हारी आँख चमकती है

स्पर्श बोलता है 

खुशियाँ महकती हैं

नए परिधान में आओ तो 

आँगन ऋतुएं उतरती है 

तुम नाराज़ हो 

तो 

तन जाता है काला शामियाना

खुश हो तो 

रौशनी बिखरती है ....:)

     
        - राजलक्ष्मी शर्मा .

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CELEBRATION .


i see wishes hanging from trees
where leaves once gathered gold
as autumns mellow sunshine
filters through the winter cold

reminds me of the shaded pine
where you clasped my hand
hesitatingly for the first time
and the fire in my heart
tasted wine in your blood
and millions of tiny lights
sparkled through our souls

gently you gathered a twinkle
the bud of your palms aglow
as my hands clasped yours
and they merged into one
with the glow of surrender

rememeber how then night fell
diwali lights of the mountains
scintillating hope doubly reflected
in the lake and in our eyes
and how you whispered

each diwali in one diya
this twinkling light will glow
and till you can discern it
our sacred love will flow

do you know, love?
since then my celebration
of this festival of lights
is just that  one lamp
glowing in your name
always and forever!

....... Sadhana .

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एक दिया फिर आज जलाओ .


मन को ऐसा क्यों लगता है ,
चाहे कितने दीप जला लें 
कहीं अँधेरा रह जाता है !

इतने रूप बदल कर फैला .
इतने रंग बना कर छाया .
इतनी आसानी से कब मिट पायेगा 
ये तम का साया !?

चाहे जितने दीप जला लो ,
धरती को तारों सी जगमग दे डालो ,
आकाश बना लो ;
जब तक दीपक नहीं जलेगा 
मन के उस गहरे गह्वर में ,
घोर अँधेरा नहीं छंटेगा .

तुम प्रकाश को ढूंढ रहे हो कहाँ ?
दियों की इस जगमग में !
ये प्रकाश तो क्षण भर का है 
और अँधेरा युगों युगों का !!

एक दिया फिर आज जलाओ 
मन के उस बिखरे आँगन में 
जिस में कब से धूल अटी है ,
एक रंगोली वहां सजाओ .

अब उसके प्रकाश में देखो 
सब कुछ कितना आलोकित है .
कोई भी तो नहीं पराया ,
तेरा मेरा नहीं कहीं कुछ ,
प्रेम सत्य है , और पूजित है .

एक दिया फिर आज जलाओ 
उस सूने घर के आँगन में ,
जिस में भूख रहा करती है ,
बीमारी है , बेकारी है ,
नाउम्मीदी बेचारी है .

पोंछो उन आँखों के आंसू ,
देखो ये उजास कैसी है ,
मुस्कानों में फ़ैल रही है ,
सूरज के प्रकाश जैसी है !

एक दिया फिर आज जलाओ वहां ,
जहाँ फिर कभी बुझे ना .
रहे हमेशा शीश उठाये ,
ज्योतिर्मय ,
जगमग करती लौ ;
तम के आगे कभी झुके ना .

---------------- और -----------------------

दीप मेरे जल ....


दीप मेरे जल तुझे है जूझना तम से , तिमिर से .

देख तुझ को नियति ने इस रूप में इस हेतु ढाला,
जल सके तुझ में भले ही क्षीण सी , पर ज्योति ज्वाला ,
सींचता जा ,सींचता जा , ज्योति को अपने रुधिर से .
दीप मेरे जल तुझे है जूझना तम से , तिमिर से .

मत समझ तू धूल मिट्टी से बना तो क्षुद्र है ,
क्षणिक जीवन हो तो क्या है , देख तुझ में रूद्र है ,
तू भला है तारकों की ज्योति हीना पंक्ति भर से .
दीप मेरे जल तुझे है जूझना तम से , तिमिर से .

है तेरी पूजा निरंतर प्राण को अपने गलाना ,
झेल पीड़ा दाह , श्वासों की अकम्पित लौ जलाना ,
अब न कोई राह भटके फिर अँधेरे की डगर से .
दीप मेरे जल तुझे है जूझना तम से , तिमिर से .

                - मीता .

        ( झरता हुआ मौन से )

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शुभ दीपावली 


खुशियाँ खूब और गम न हो ,
लौ चिरागों की कम न हो .

लुटाते रहे यूं ही ज़माने भर में ,
'खज़ाना-ए-मोहब्बत' खतम न हो .


"दीये" दिवाली और खुशियों के खूब रोशन हो आपके जीवन में !!

... अमित हर्ष .
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हमारे मेहमान -


कल ...
  • बीती रात जब मैं लौट आया था ओस मे भीग रही छत से, मुंह उठाये खड़ी मुंडेरों पर कुछ मटियाले दीये टिमटिमा रहे थे, जबकि चुक गया था उनका तेल...... उनकी बाती राख हों चुकी थी,फिर भी अपनी पेंदी पर सिमट जाने के बावजूद वो जले जा रहे थे...... यद्यपि उस वक़्त उनकी रौशनी लुभावनी भी नहीं शेष थी, फिर भी.........
    रौशनी देना भी कितना त्रासद होता है ना......... आपने लगातार जलते जाना होता है चुक जाने तक,और एक रोज़ अपनी ही जड़ों पर अपनी ही राख सिमट आती है!
    कल ...
    कल फिर भी शेष रहेगा अंधियारा..... 
    कल फिर आएगी कोई घोर काली अमावस
    हाँ पर
    दीये भी आते रहेंगे
    अपनी शिराओं पर आग लगाए ..... जिद्दी दीये,
    ना अँधियारा कभी ख़तम होगा
    और ना ही दीये अमर होंगे
    क्रम चलता रहेगा......
    होने और ना होने के बीच ....... 
    प्रकाशमान होने की त्रासदी नए नए प्रतिमान गढ़ेगी!

              - अमित आनंद .
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    दीप देहरी जलते - जलते ...

    स्वप्न संजोते रात बीत गयी
    बीत गया दिन चलते - चलते ,
    पाहून कोई द्वार न आये
    दीप देहरी जलते - जलते।

    मंगल कलश हुए सब रीते ,
    बिखरे रोली - अक्षत - चन्दन ,
    बाहर - भीतर घिरा अँधेरा
    विपिन हो गया मन का नंदन।

    आस संजोये उम्र बीत गयी
    नैन भरे हैं ढलते - ढलते !

    पाहून कोई द्वार न आये
    दीप देहरी जलते - जलते।

            - नत्थू सिंह चौहान .

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    Masters -

    जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना .



    जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना                                              
    अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
    नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल,
    उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,
    लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
    निशा की गली में तिमिर राह भूले,
    खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,
    ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए
    जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
    अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

    सृजन है अधूरा अगर विश्‍व भर में,
    कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
    मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
    कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
    चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही,
    भले ही दिवाली यहाँ रोज आए
    जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
    अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

    मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,
    नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
    उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,
    नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा,
    कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब,
    स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए
    जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
    अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

    ------------- और -----------------

    मैं अकंपित दीप प्राणों का लिए 




    मैं अकंपित दीप प्राणों का लिए,
    यह तिमिर तूफान मेरा क्या करेगा?

    बन्द मेरी पुतलियों में रात है,
    हास बन बिखरा अधर पर प्रात है,
    मैं पपीहा, मेघ क्या मेरे लिए,
    जिन्दगी का नाम ही बरसात है,
    साँस में मेरी उनंचासों पवन,
    यह प्रलय-पवमान मेरा क्या करेगा?
    यह तिमिर तूफान मेरा क्या करेगा?

    कुछ नहीं डर वायु जो प्रतिकूल है,
    और पैरों में कसकता शूल है,
    क्योंकि मेरा तो सदा अनुभव यही,
    राह पर हर एक काँटा फूल है,
    बढ़ रहा जब मैं लिए विश्वास यह,
    पंथ यह वीरान मेरा क्या करेगा?
    यह तिमिर तूफान मेरा क्या करेगा?

    मुश्किलें मारग दिखाती हैं मुझे,
    आफतें बढ़ना बताती हैं मुझे,
    पंथ की उत्तुंग दुर्दम घाटियाँ
    ध्येय-गिरि चढ़ना सिखाती हैं मुझे,
    एक भू पर, एक नभ पर पाँव है,
    यह पतन-उत्थान मेरा क्या करेगा?

                 - गोपालदास "नीरज".

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    श्री विपिन जोशी की दो रचनायें इस विशेषांक में प्रस्तुत हैं। उनके लिए श्री माखन लाल चतुर्वेदी जी ने कहा था," विपिन जी के गीत न केवल मध्य प्रदेश की किन्तु हिंदी संसार की निधि हैं। उनके ह्रदय के बोल अशर्फियों के तौल पर भी नहीं तोले जा सकते।"


    दिशा - बोध .


    अपने दीपक तुम आप बनो , संगी !
    तम ही खुद तम - तारक हो जायेगा।

    अभिलाषाओं का अंत नहीं ,
    अभिमंत्रों की आवाज़ नहीं ,
    तृष्णाओं के तट का , तल का -
    आरम्भ नहीं , अंदाज़ नहीं !
    अपने दर्पण तुम आप बनो , संगी !
    गुण ही खुद गुण - गायक हो जाएगा।


    अपने दीपक तुम आप बनो, संगी !
    तम ही खुद तम - तारक हो जायेगा।

    आशाओं का आधार नहीं ,
    विश्वासों का विस्तार नहीं ,
    सपनों की साधों का , स्वर का -
    संसार नहीं , संचार नहीं।
    अपना सपना तुम आप बनो , संगी !
    सुख ही खुद सुख - साधक हो जाएगा।


    अपने दीपक तुम आप बनो, संगी !
    तम ही खुद तम - तारक हो जायेगा।

    दुनिया बहुरंगी है , लेकिन -
    रस - रंग नहीं , ढब - ढंग नहीं ,
    अपनों की अपनी नगरी में
    अपना भी अपने संग नहीं।
    अपने संगी तुम आप बनो , संगी !
    दुःख ही खुद दुःख - दाहक हो जाएगा।

    ---------- और ------------

    स्नेह दीप बुझते जाते हैं ...


    विद्युत् दीपों के प्रकाश में
    स्नेह दीप बुझते जाते हैं।

    अन्धकार के वक्षस्थल पर
    आभा करती है अठखेली,
    कोमल - कुंदन किरण कुमारी
    कुटिया से चढ़ गयी हवेली !
    झन - झन की झंकृति झंझा में ,
    पावन स्वर उड़ते जाते हैं।


    विद्युत् दीपों के प्रकाश में
    स्नेह दीप बुझते जाते हैं।

    नगर - नगर में जुड़ा हुआ है
    स्नेह हीन दीपों का मेला !
    दिशा - दिशा में घूम रहा है
    दीप खोजने स्नेह अकेला !
    ज्योतिर्जग के जगमग पथ पर
    चरण - चिन्ह मिटते जाते हैं।


    विद्युत् दीपों के प्रकाश में
    स्नेह दीप बुझते जाते हैं।

    चेतन जल के अंतराल से
    जड़ चट्टानें उभर रही हैं ,
    मन्त्रों की उषा नगरी में
    यंत्रों की निशी विचर रही हैं !
    अभिनन्दन के आडम्बर में
    पूजा - पल घटते जाते हैं।


    विद्युत् दीपों के प्रकाश में
    स्नेह दीप बुझते जाते हैं।

               - विपिन जोशी ( 30 सितम्बर 1922 - 18 अगस्त 1961 )
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    यह दीप अकेला स्नेह भरा ...

    यह दीप अकेला स्नेह भरा                                          
    है गर्व भरा मदमाता पर
    इसको भी पंक्ति को दे दो

    यह जन है : गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गायेगा
    पनडुब्बा : ये मोती सच्चे फिर कौन कृति लायेगा?
    यह समिधा : ऐसी आग हठीला बिरला सुलगायेगा
    यह अद्वितीय : यह मेरा : यह मैं स्वयं विसर्जित :

    यह दीप अकेला स्नेह भरा
    है गर्व भरा मदमाता पर
    इस को भी पंक्ति दे दो

    यह मधु है : स्वयं काल की मौना का युगसंचय
    यह गोरसः जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय
    यह अंकुर : फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय
    यह प्रकृत, स्वयम्भू, ब्रह्म, अयुतः
    इस को भी शक्ति को दे दो

    यह दीप अकेला स्नेह भरा
    है गर्व भरा मदमाता पर
    इस को भी पंक्ति दे दो

    यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा,
    वह पीड़ा, जिसकी गहराई को स्वयं उसी ने नापा,
    कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के धुँधुआते कड़वे तम में
    यह सदा-द्रवित, चिर-जागरूक, अनुरक्त-नेत्र,
    उल्लम्ब-बाहु, यह चिर-अखंड अपनापा
    जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय
    इस को भक्ति को दे दो

    यह दीप अकेला स्नेह भरा
    है गर्व भरा मदमाता पर
    इस को भी पंक्ति दे दो 

     - अज्ञेय .
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    चरागाँ 


    एक - दो भी नहीं छब्बीस दिये
    एक - इक कर के जलाए मैंने।

    इक दिया नाम का आज़ादी के -
    उसने जलते हुए होठों से कहा
    चाहे जिस मुल्क से गेहूं मांगो
    हाथ फैलाने की आज़ादी है।

    इक दिया नाम का खुशहाली के -
    उसके जलते ही ये मालूम हुआ
    कितनी बदहाली है ...
    पेट खाली है मिरा
    जेब मेरी खाली है !

    इक दिया नाम का यकजहती के -
    रौशनी उस की जहाँ तक पहुंची
    कौम को लड़ते झगड़ते देखा ...
    माँ के आँचल में हैं जितने पैबंद
    सब को इक साथ उधड़ते देखा।

    दूर से बीवी ने झल्ला के कहा
    तेल महंगा भी है , मिलता भी नहीं
    क्यों दिए इतने जला रक्खे हैं
    अपने घर में न झरोखा , न मुंडेर
    ताक सपनों के सजा रक्खे हैं ...

    आया ग़ुस्से का इक ऐसा झोंका
    बुझ गए सारे दिये ...
    हां , मगर एक दिया , नाम है जिसका उम्मीद
    झिलमिलाता ही चला जाता है।

              - कैफ़ी आज़मी .
    ___________________________________________________


    सरगम में लता जी के अनुपम स्वर में पंकज मलिक जी का यह यादगार गीत प्रस्तुत है, इस आशा के साथ कि उस अद्वितीय की लौ हमारे भीतर चिर प्रकाशमान रहे और पथ प्रदर्शित करे - 

    तेरे मन्दिर का हूँ दीपक ...

    6 टिप्‍पणियां:

    siddheshwar singh ने कहा…

    बहुत बढ़िया संकलन।

    जगमग करती लौ
    तम के आगे कभी झुके ना

    meeta ने कहा…

    हम आप के प्रोत्साहन के लिए बहुत आभारी हैं सिद्धेश्वर जी.पूरा प्रयास करेंगे कि आगे भी आप कि अपेक्षाओं पर खरे उतर सकें.कृपया मार्ग दर्शन करते रहिएगा.
    चिरंतन ...

    Abhivyakti ने कहा…

    meeta mam aap bahut aachha likhte ho

    meeta ने कहा…

    Thank you Abhivyakti for your encouragement !!

    Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा…



    आदरणीया मीता जी

    आपकी पोस्ट पर विलंब से बात कर रहा हूं…लेकिन यथासमय पढ़ अवश्य लिया था…
    सारी रचनाएं एक से बढ़ कर एक हैं
    इन्हें संकलित कर' पढ़ने के लिए हमें उपलब्ध कराने के लिए आपके प्रति विनम्र कृतज्ञता !!
    दिनेश द्विवेदी जी , पुष्पेन्द्र वीर साहिल जी , स्कन्द जी , इमरान खान 'ताइर' जी , नीलम समनानी चावला जी , राजलक्ष्मी शर्मा जी , अमित हर्ष जी , नत्थू सिंह चौहान जी , साधना जी सबकी रचनाएं श्रेष्ठ हैं …
    और… मीताजी आपकी रचनाओं का तो कहना ही क्या …
    :)
    सभी को मेरी हार्दिक मंगलकामनाएं !
    सर्वश्री गोपालदास "नीरज" , विपिन जोशी , क़ैफ़ी आज़मी की रचनाएं शब्द-साधकों की प्रेरणा के लिए पर्याप्त हैं …
    लता जी के गाए गीत तेरे मन्दिर का हूँ दीपक ... ने चार चांद लगाए हैं…

    कुल मिला कर आपके लिए विशेष बधाई का अधिकार बनता है …
    साधुवाद एवं आभार …

    Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा…




    बनी रहे त्यौंहारों की ख़ुशियां हमेशा हमेशा…

    ஜ●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●ஜ
    ♥~*~दीपावली की मंगलकामनाएं !~*~♥
    ஜ●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●ஜ
    सरस्वती आशीष दें , गणपति दें वरदान
    लक्ष्मी बरसाएं कृपा, मिले स्नेह सम्मान

    **♥**♥**♥**●राजेन्द्र स्वर्णकार●**♥**♥**♥**
    ஜ●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●ஜ

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