वो जो मेरी तलाश है , क्या तेरी नहीं ?
वो जो मेरा सुकून है , क्या तेरा नहीं ?
मेरी जो कशिश है , क्या तेरी नहीं ?
मुझे तलाश है एक हरी भरी घाटी की ,
मुझे खोज है उस रास्ते की जो मंजिल खुद ही में हो ,
मैं भी तो किलकारियों में खोना चाहती हूँ ,
मैं ढूंढती हूँ वो आँचल जो तेरा ग़म समेट ले .
मैं तलाशती हूँ उस ख़ामोशी को जिसमे मैं समा जाऊं .
तुझे भी तो उसी हरियाली की तमन्ना थी ,
तू भी तो तलाशता था पगडंडियाँ जो कहीं न जाती हों ,
तुझे भी तो बेलौस खिलखिलाहटों गुमना मंज़ूर था ,
तुझे भी तो खोज थी उस दामन की जो दुनिया के सारे ग़म लपेट ले ,
तू भी तो ढूंढता था वो मौन जिसमे तू खुद को पा ले .
फिर भी हम यूं ही जुदा से, कटे से , कुछ कुछ अलग से ,
उन्ही ऊंचे - नीचे रास्तों पे भटकते हुए ,
खुद को अकेला सा पाते हुए , सिमटते हुए चलते रहे .
क्यूँ न तुझे मेरा साथ मिले , मुझे तेरी दोस्ती ...
तुझे मेरी खामोशियाँ , मुझे तेरी नादानियां ...
और तलाशें साथ में उन घाटियों को,
उन बदलियों को , उन राहों को, उन पनाहों को
जिन में तेरा घर भी हो, मेरा भी हो
क्योंकि ..
वो जो मेरी तलाश है, तेरी भी है
वो जो मेरा वजूद है , तेरा भी है
मंजिल जो मुझे ढूंढती है, तुझे भी तो पुकारती है ...
- अनुराधा
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