बुधवार, 12 दिसंबर 2012

चंद ख़यालों की तलाश में ...


बंजर जमीन पे उगे हुए तुम सूखे झाड़ झंखाड़ 
तुम्हारी की जड़ो पे पलते हैं बिच्छु और सांप 
तुम्हे डर नहीं लगता की कभी डस दें तुम्हे 
जहरीला कर दें पूरा का पूरा और 
और तुम्हारी ये कंटीली शाखे भी न बचा पाए तुम्हे 
तुम तलाशते क्यू नहीं उपजाऊ जमीन 
जहाँ सांप नहीं सिर्फ केंचुए पलते हैं 
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कामवाली बाई लगा रही है झाड़ू बहुत देर से 
मैंने कहा है उस से कि अंगूठी गिर गयी है
वो तलाश में साफ़ कर रही है कोना कोना
सच्चाई सिर्फ मुझे पता है महीने मे एक दिन झूठ बोलने की
में चाहती हूँ साफ़ सुथरा घर और
और वो तलाश में है उसकी जो खोयी ही नहीं
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मन उतर रहा है सीढियां
जो उसे कही किसी खाली आँगन में उतर देंगी
वहां अपने हिसाब से वो शुरू कर देगा यादों को फैलाना
धूप दिखाना और अंधेरा होते होते वो फिर निकल जायेगा
कुछ नमी सहेजने ताकि कल फिर उन यादों को सुखा सके
इसे शायद आदत हो गयी है बिना तलाश के किसी तलाश में
यूं ही सीढियाँ उतरने और चढ़ने की ...

.............प्रीति ...............

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