
खोज , अनुसंधान , संधान - न जाने ऐसे कितने ही शब्द तलाश के पर्यायवाची हैं। ' तलाश ' एक ऐसा मुकम्मल लफ्ज़ है, जिसके अन्दर न सिर्फ व्यक्ति का निज , बल्कि पूरी इंसानी सभ्यता समाई हुई है। सामजिक और ऐतिहासिक स्तर पर देखें, तो मानव तलाश दर तलाश करता हुआ आज वोल्गा से गंगा के तट से होता हुआ अंतरिक्ष तक सेंध लगा बैठा है। इसके अलावा जहाँ वैज्ञानिकों ने तलाशते-तलाशते अंतरिक्ष के कई ब्रह्माण्ड खोज लिए , ठीक वैसे ही मनुष्य के मानसिक चिंतन ने ' अथतो ब्रह्म जिज्ञासा ' के माध्यम से दार्शनिक ज़मीन पर ईश्वर, जीव, मन और आत्मा के अनेक परालौकिक रहस्यों को खोज डाला। तभी न महादेवी जी ने कहा है -
" खोज ही चिर प्राप्ति का वर ,
साधना ही सिद्धि सुन्दर ,
रुदन में सुख का पता है ,
विरह मिलने की प्रथा है ,
शलभ जल कर दीप बन जाता
निशा के शेष में ,
आंसुओं के देश में।"
तात्पर्य यह है, कि तलाश एक ऐसी निरंतर खोज है जिसका अंत मनुष्य और मनुष्यता दोनों से जुड़ा हुआ है। आज एक लम्बी तलाश के बाद सर उठा कर कह रहा है इंसान -
" मैं एक कतरा सही , मेरा अलग वजूद तो है ,
हुआ करे जो समंदर मेरी तलाश में है ."
आज का कवि या शायर जिसे हमारे भारतीय काव्य शास्त्र में ' कविर्मनीषी ' कहा जाता है , अपनी सम्पूर्णता के साथ ' जहाँ न पहुंचे रवि , वहां पहुंचे कवि ' इस उक्ति को सार्थक कर रहा है। किन्तु महत्वपूर्ण तो मन ही है न ? तलाश ... एक मंदिर के गर्भगृह की तरह है, देह तो मंदिर का मात्र परिसर है, दालान है, इससे अधिक कुछ नहीं ... और, मन में स्थापित व्यक्ति ही वह आराध्य है जिसे तलाशता हुआ, वह मंदिर की दालानों, सीढ़ियों पर से घूमता हुआ अपने ईष्ट तक पहुँच जाता है।
- दिनेश द्विवेदी .
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इनकी कलम से -
तलाश है ऐसे मंत्र की .

तलाश है उस मंत्र की
जो मेरी देह के इस
माया - दर्पण को तोड़ दे .
कि मुझे -
तलाश है उस मंत्र की
जो मेरी देह और आत्मा
के बीच पनप आये
इस ऐन्द्रजालीय -
आकर्षण को उखाड़ दे .
कि मुझे
तलाश है उस मंत्र की
जो कि
उस उद्दाम वय की
अग्नि रेखा को पार करा
समर्पण की संधि रेखा
तक पहुंचा दे .
कि मुझे -
तलाश है उस मंत्र की
जो कि
इस देह के पृष्ठव पर
अपनी सतरंगी कलम को
गीतों की सुनहरी स्याही
में डुबा कर
जीवन का शास्वत सर्ग
रच जाए , और बना जाये
इस देह को
खंड काव्य से महा काव्य .
मुझे तलाश है ऐसे मंत्र की !!
------- और --------
मॉर्निंग वॉक .
धुंध के सफ़ेद उन से बनी
कोहरे की शाल ओढ़े हुए
यह सद्य षोडसी सुबह
माल रोड पर चहल कदमी
के लिए निकल आई है .
हैरान , परेशानकुन होता है
रोज़ ही सूरज यह
मुंह अँधेरे ही निकलता है
इस षोडसी के
अनुसंधान में वह ...
पर उसकी आमद से पेश्तर
मोर्निंग वाक से जा चुकी
होती है यह रूप गर्विता
अपनी गहन गुफा में
अगले दिन तक के लिए .
------ और -------
देखो तो .
देखो - देखो
रात का चुम्बन ले
चाँद कैसा भागा
और -
तमतमाता सूरज
निकल आया है
अपनी मांद से
उसे खोजने .
- दिनेश द्विवेदी .
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हिचकी
कुछ नामो को बार बार ले
हिचकी याद के उस पन्ने पे
मुहर लगा के पलट गयी.
पन्ना जैसे कांच का टुकड़ा
पारदर्शिता की शर्तो पर
खरा खरा सा...
पन्ना जैसे सीप का मोती
बंद कवच के अंदर भी
उजला उजला सा.
पन्ना पारे सा भारी
ताप से उठता गिरता
धवल द्रवित सा...
पन्ना हल्का.. हवा मे
उडती हुयी तितली सा.....
पन्ने पर रंग बिरंगी
लिखी हुयी इबारत..
पन्ना जैसे नेह से उसके
भरा भरा सा...
उस पन्ने पे..
जिसपे आके अटकी हिचकी
उस पन्ने को पढ़ के
मुझको अर्थ बता दे..
उस पन्ने पे लिखा क्या है
ये समझा दे...
ऐसे एक अनुवादक की
मुझ को तलाश है...
-------- और --------
चंद ख़यालों की तलाश में ...
बंजर जमीन पे उगे हुए तुम सूखे झाड़ झंखाड़
तुम्हारी जड़ो पे पलते हैं बिच्छु और सांप
तुम्हे डर नहीं लगता की कभी डस दें तुम्हे
जहरीला कर दें पूरा का पूरा और
और तुम्हारी ये कंटीली शाखे भी न बचा पाए तुम्हे
तुम तलाशते क्यू नहीं उपजाऊ जमीन
जहाँ सांप नहीं सिर्फ केंचुए पलते हैं
+++++++++
कामवाली बाई लगा रही है झाड़ू बहुत देर से
मैंने कहा है उस से कि अंगूठी गिर गयी है
वो तलाश में साफ़ कर रही है कोना कोना
सच्चाई सिर्फ मुझे पता है महीने मे एक दिन झूठ बोलने की
में चाहती हूँ साफ़ सुथरा घर और
और वो तलाश में है उसकी जो खोयी ही नहीं
+++++++++
मन उतर रहा है सीढियां
जो उसे कही किसी खाली आँगन में उतर देंगी
वहां अपने हिसाब से वो शुरू कर देगा यादों को फैलाना
धूप दिखाना और अंधेरा होते होते वो फिर निकल जायेगा
कुछ नमी सहेजने ताकि कल फिर उन यादों को सुखा सके
इसे शायद आदत हो गयी है बिना तलाश के किसी तलाश में
यूं ही सीढियाँ उतरने और चढ़ने की ...
सच्चाई सिर्फ मुझे पता है महीने मे एक दिन झूठ बोलने की
में चाहती हूँ साफ़ सुथरा घर और
और वो तलाश में है उसकी जो खोयी ही नहीं
+++++++++
मन उतर रहा है सीढियां
जो उसे कही किसी खाली आँगन में उतर देंगी
वहां अपने हिसाब से वो शुरू कर देगा यादों को फैलाना
धूप दिखाना और अंधेरा होते होते वो फिर निकल जायेगा
कुछ नमी सहेजने ताकि कल फिर उन यादों को सुखा सके
इसे शायद आदत हो गयी है बिना तलाश के किसी तलाश में
यूं ही सीढियाँ उतरने और चढ़ने की ...
- प्रीति तिवारी .
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तलाश .
वो जो मेरा सुकून है , क्या तेरा नहीं ?
मेरी जो कशिश है , क्या तेरी नहीं ?
मुझे तलाश है एक हरी भरी घाटी की ,
मुझे खोज है उस रास्ते की जो मंजिल खुद ही में हो ,
मैं भी तो किलकारियों में खोना चाहती हूँ ,
मैं ढूंढती हूँ वो आँचल जो तेरा ग़म समेट ले .
मैं तलाशती हूँ उस ख़ामोशी को जिसमे मैं समा जाऊं .
तुझे भी तो उसी हरियाली की तमन्ना थी ,
तू भी तो तलाशता था पगडंडियाँ जो कहीं न जाती हों ,
तुझे भी तो बेलौस खिलखिलाहटों में गुमना मंज़ूर था ,
तुझे भी तो खोज थी उस दामन की जो दुनिया के सारे ग़म लपेट ले ,
तू भी तो ढूंढता था वो मौन जिसमे तू खुद को पा ले .
फिर भी हम यूं ही जुदा से, कटे से , कुछ कुछ अलग से ,
उन्ही ऊंचे - नीचे रास्तों पे भटकते हुए ,
खुद को अकेला सा पाते हुए , सिमटते हुए चलते रहे .
क्यूँ न तुझे मेरा साथ मिले , मुझे तेरी दोस्ती ...
तुझे मेरी खामोशियाँ , मुझे तेरी नादानियां ...
और तलाशें साथ में उन घाटियों को,
उन बदलियों को , उन राहों को, उन पनाहों को
जिन में तेरा घर भी हो, मेरा भी हो
क्योंकि ..
वो जो मेरी तलाश है, तेरी भी है
वो जो मेरा वजूद है , तेरा भी है
मंजिल जो मुझे ढूंढती है, तुझे भी तो पुकारती है ...
---------- और -----------
यों ही ...
सुबह की पहली किरन से
रात की आखिरी झपक तक
तुम चलते रहे
मैं चलती रही ...
ज़िन्दगी यों ही गुज़रती गयी .
चलती गयी .
कल की किलकारी ,
आज की मारामारी ,
कल की रह्गुजारी ...
तुम चलते रहोगे ,
मैं चलती रहूंगी ,
चलती रहेगी यों ही ज़िन्दगी भी .
दो पल कहीं तुम मिल गए तो
मुस्कुरा लेंगे ,
दो कदम साथ चल भी लेंगे ,
फिर अपनी धुन में तुम ...
अपनी गुन-धुन में मैं .
- अनुराधा ठाकुर .
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तलाश है ...
हाँ , मै भटकती हूँ .
ऐसे दिनों की ...
जहाँ विषाद ना हो .
खुशियाँ जहाँ
बूंद बूंद बरसती हों ,
बूंद बूंद बरसती हों ,
लोग अपने मन की करते हैं
और कोई उन्हें टोकता नहीं ...
मुझे तलाश है
ऐसे जहाँ की -
जहाँ मै बैठ सकूँ
अपनी खुशियाँ समेट कर ,
कुछ देर अकेले ...
कर सकूँ हिसाब
आखिर इस दुनिया में आने का
मेरा प्रयोजन क्या है .
मुझे तलाश है
ऐसे लोगों की
जो मेरी तरह सोचते हैं ,
जो कल्पना और यथार्थ की दुनिया
का फर्क बखूबी समझते हैं .
मुझे तलाश है
ऐसे मंजरों की
जहाँ सारे लोग
बिना भेदभाव के साथ बैठते हैं
और दुनिया की बेहतरी सोचते हैं .
--------- और -------------
अपनी अपनी तलाश
--------- और -------------
अपनी अपनी तलाश
पता नहीं
कैसे
क्या तलाशते मेरी नज़रें
रुक गयी
तुम्हारे चेहरे पर
जैसे उम्र का जिया एक पन्ना
या कोई अधूरी जिजीविषा
चिपकी हो
इश्तेहार की तरह
गौर से पढ़ा
हाँ कुछ तो मिलता है
कुछ आधी अधूरी निशानियाँ
जो पूरी नहीं हैं
क्षण भर को लगा
तलाश पूरी हुई
कुछ आशाएं भी बंधी
तुम भी रूक गए थे
मेरे चेहरे में कुछ ढूंढ़ते
जो सफ़र में रुकने का
कुछ विश्राम का
प्रयोजन ही था शायद
आसमानी [ईश्वरीय ] व्यवस्था के तहत
साथ बैठते हैं आओ कुछ देर
फ़िर तो तुम्हे भी तलाश में निकलना है
मुझे भी तलाश लिए गुज़र जाना है
आँखों में एक खालीपन लिए हुए ...
- राजलक्ष्मी शर्मा .
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तलाश .... ये भी .
टटोली जाने वाली रसोई में ...
खाली पड़े सारे बर्तन
कुछ झुंझलाहट देते है .
लगा कल रात सभी
को बड़ी भूख थी ,
खाली बर्तनों की चमक
बाहर झांक रही थी ...
मगर गली में
कुत्तो ने बड़े मजे से
जी भर के .. और
भर पेट
खूब दावत उड़ाई ....
गरीब की झोपड़ी
पास में बसी
मुंह में लार सुड़क
कर रह गयी ........
भूख, लेकिन फिर भी
एक तलाश .......
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मैंने छोड़ दिया है ...
आसमान में गहरा नीला तलाशना ,
और घास में मखमली हरा खोजना
चिड़ियों की चहकार में मिठास ढूंढना ,
सुबह की पहली किरण का संदेश पढना ,
पैरों के लिए पंख चुनना ,
दस्तक पर लपक कर खोलना दरवाज़ा ,
सपने बुनना ,
आवाजें सुनना ...
छोड़ दिया है अरसा हुए .
आसमान हल्का नीला भी बुरा नहीं ,
घास ज़रा भूरी ही सही ,
कोई बात नहीं ...
क्या हुआ कभी अगर
चिड़ियों की आवाज़ भी शोर हो जाती है ...
सुबह की पहली किरण अगर
आँखों में चुभती है ... नींद से जगाती है .
यों भी ,
पैरों में पंखों की गुंजाइश कहाँ है !
सपने खिलौने हैं ...
आवाजें धोखा ...
और , हर दस्तक परिचित हो
कतई ज़रूरी नहीं .
ऐसा तो नहीं कि तेरी प्यास नहीं है ...
पर जो है ,
उसी में खोज लिया ज़िन्दगी तुझको ,
जो नहीं है
उसकी मुझे तलाश नहीं है .
-------- और ------
सरिता .
तू उठती, गिरती, लहराती, बल खाती कहाँ चली सरिते ?
किन विरही नैनों से चोरी तूने ये भीगी शीतलता ?
किस मृगशावक की द्रुत गति से अपनायी तूने चंचलता ?
किस बदरी से सीखा तूने प्यासी धरती को सरसाना ?
और कहाँ मिली ये कोमलता, ये शिशु सा स्वर, ये निर्मलता ?
इतना बतला दे कौन गाँव घर, तेरी कौन गली सरिते ?
तू हिमपुत्री, तू ऋषि कन्या, तू चिर यौवना कुमारी सी,
जाने किस सागर से मिलने जाती है बांह पसारी सी .
तू कभी प्रचंडी चंडी सी, तो कभी सौम्य पर्वत बाला,
तो कभी ममत्व पूर्ण माँ सी, बन जाती कोमल नारी सी .
ये तो बतला तू कैसे इतने रूपों में बदली सरिते !
क्यों कभी अचानक गुमसुम सी चलते चलते हो जाती है ?
और कभी उच्छ्वास भर-भर पत्थर से सर टकराती है ?
कैसी व्याकुलता है जो तू क्षण भर विश्राम नहीं करती ?
क्या प्यास भरी तेरे उर में, तू किसे खोजने जाती है ?
है कौन छिपी तेरे भीतर एक विरहन सी, पगली सरिते ?
- मीता .
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Masters ( हिंदी )
ग़ज़ल
कब तलक यूँ ही मुझे ख़ाक-ब-सर चाहती है ?
ऐ थकन , पूछ तो क्या राहगुज़र चाहती है ?
पहले कम पड़ती थी इक दश्त की वुसअत भी इसे
अब ये वहशत दर ओ दीवार में घर चाहती है .
कोई उम्मीद की सूरत नहीं बाक़ी दिल में
कोई उम्मीद मगर दिल में बसर चाहती है .
रोज़ मानूस मनाज़िर से लिपटती है मगर
इक तमाशा भी नया रोज़ नज़र चाहती है .
बोझ लगते हैं तबीअत को यह यकसां लम्हे
ऐसे माहौल से अब रूह मफर चाहती है .
घर से सूरज को निकलने की इजाज़त ही न हो
तीरगी अपनी ही शर्तों पे सेहर चाहती है .
;शाद ; ये फ़िक्र किसी तौर नहीं मानती है
हर सदफ में कोई नायाब गुहर चाहती है .
- खुशबीर सिंह शाद .
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एक गैर ज़रुरी नज़्म .
तुम्हें
पागलपन की सरहदों के पार भी
पढ़ता रहा हूँ
मेज़ से बिस्तर तक फैली
लिखी-अनलिखी किताबों के ढेर में
तरसता रहता हूँ
तुम्हारी आभा के
आभास मात्र को भी
देखता रहा हूँ
तुम्हारी राह कल्पना की खुलती
बंद होती खिडकियों से
निहारता रहा हूँ
नभ की अथाह नीलाहट में
हसरत और मायूसी के साथ
तुम्हें ढूंढता रहा हूँ
हरी घास के समुन्दर में
हरे सांप की तरह !!!
- नोमान शौक़.
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हमारे मेहमान -
खुर्शीद हयात जी शब्दों की दुनिया के एक जाने माने हस्ताक्षर हैं। हम उन्हें बेहतरीन कवि , कहानीकार और आलोचक के रूप में जानते हैं। चिरंतन में एक बार फिर , वे हैं हमारे मेहमान -
तहरीरें .
पलकों पे बैठी
ये लफ्ज़ - लफ्ज़ तहरीरें हैं
शहद की बहती हुई
मीठी सी नहर ...
कहाँ देख पाया मैं
कहाँ समझ पाया मैं
तेरी ज़बान को
इन लम्हों को मैं
झील कहूं या कँवल ?
लफ़्ज़ों की कभी न थमने वाली
धारा में
झिलमिलाता हुआ
हर लम्हा ए हयात
और कस्तूरी की तलाश
कहाँ समझ पाया मैं
बहते हुए
पसीने की ज़बान को !
ज़बान की भी
अपनी अपनी
सरहदें बन गयीं ...
ये हर दिन
लकीरों को मिटा कर
आदमी के जंगल में
किसे तलाश करता हूँ मैं ?
रह रह कर
वह कौन है जो
धड़कता है
पिघलता है
मेरे वजूद में ??
देखा तो नहीं
मैं ने महसूस ज़रूर किया है
तुम एक कोने में खड़े
हमेशा मुस्कुराते हो
शब्दों का ये
मकड़ - जाल है ,
जूनून ... या फिर
आवारापन !???
--------- और ---------
" इश्क - जड़ों " की तलाश
उस के साथ
एक नन्ही सी
मासूम सी लड़की
चला करती थी
उँगलियआँ थामे
जब भी वो " महल " से निकलता
वो साथ हो लेती .
आज वह
महल से दूर
" शहद" की बहती हुई
' नहरों " से खेलने गई
उस लड़की को
ढूंढ रहा है .
तलाश कर रहा है
बीती रातों के
हर उजालों में
उस का चेहरा !
जिंदगी बहुत आगे निकल गयी है
मगर
आज भी वह
महल के
उस कोने में खड़े
बैरी के पेड़ के करीब
उस मासूम सी लड़की को
ढूंढ रहा है
जहाँ वह
पहली बार मिली थी .
- खुर्शीद हयात .
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अनुवाद -
मैं .
जाता हूँ मैं
जादूगरों और राजकुमारियों की तलाश में
यह कवियों की राह
तुम्हें किसने दिखाई भला ?
प्राचीन गान की
धारा , फव्वारा में
क्या तुम सागर और धरती से
दूर ... बहुत दूर ... जाते हो ?
- फेदेरेको गार्सिया लोर्का .
( स्पहानी कवि )
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' सरगुज़श्त ' से एक टुकड़ा .
मुझे पता है

यह लड़ाई आसान नहीं है .
मेरे बच्चे , मेरा शहर
जो कि तुम्हारा भी है
बहुत पहले से शैतान की मांद में तब्दील हो चुका है .
वह दिन आएगा , जब तुम्हारी आँखें
इस दर्द भरे नगमे पर दुःख से भर कर थरथरायेंगी
तुम मेरे लफ़्ज़ों में मुझे तलाशोगे
और अपने आप से ही कहोगे -
मेरी अम्मी
हुबहू वही , जो कि वह थी .
- फर्रोग फर्रोखज़ाद .
( फ़ारसी कवियत्री )
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बोहु दिन धोरे ...
बहुत दिनों तक
मीलों भटका
बहुत व्यय कर
कई देशों को देखा
ऊंचे पर्वतों को देखने गया
गहरे समन्दरों को सराहा
किन्तु देख न पाया आँखें खोल कर
अपने ही घर से दो कदम की दूरी पर
धान की एक बाली पर चमकती
ओस की बूँद के सौंदर्य को .
- रबिन्द्रनाथ टैगोर .
( बांग्ला से अनुवादित )
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बोहु दिन धोरे ...
बहुत दिनों तक
मीलों भटका
बहुत व्यय कर
ऊंचे पर्वतों को देखने गया
गहरे समन्दरों को सराहा
किन्तु देख न पाया आँखें खोल कर
अपने ही घर से दो कदम की दूरी पर
धान की एक बाली पर चमकती
ओस की बूँद के सौंदर्य को .
- रबिन्द्रनाथ टैगोर .
( बांग्ला से अनुवादित )
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सरगम -
सरगम में आज हम लाए हैं तलाश फिल्म का यह चिरपरिचित गीत , मन्ना डे जी की आवाज़ में और एस. डी. बर्मन जी के संगीत से सजा -
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