बुधवार, 12 दिसंबर 2012

एक ग़ैर ज़रूरी नज़्म .

तुम्हें
चाहता रहा हूँ
पागलपन की सरहदों के पार भी

पढ़ता रहा हूँ
मेज़ से बिस्तर तक फैली
लिखी-अनलिखी किताबों के ढेर में

तरसता रहता हूँ
तुम्हारी आभा के
आभास मात्र को भी

देखता रहा हूँ
तुम्हारी राह कल्पना की खुलती
बंद होती खिडकियों से

निहारता रहा हूँ
नभ की अथाह नीलाहट में
हसरत और मायूसी के साथ

तुम्हें ढूंढता रहा हूँ
हरी घास के समुन्दर में
हरे सांप की तरह !!!

 - नोमान शौक़.  

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