मंगलवार, 15 जनवरी 2013

सोचती है

कल कुछ पन्ने हवा में
फड़ फडा रहे थे....
शायद कुछ कह रहे थे
अपनी ही बाते कर रहे होंगे
वो चंद पन्ने थे बस..
हवा में उड़ जाना चाहते थे
फ़ैल जाना चाहते थे हर कोने में

आसमान का कोई कोना नहीं न
परेशान थे वो बहुत..
किताबो का बंधन छूटता भी नहीं
और बँधकर जीना भी मुश्किल था


किताबें भी आजकल सोचती है
उड़ान भरने की .
पता है न उन्हे भी
इंसान मन से बौना हो गया है .

- नीलम सामनानी चावला .

2 टिप्‍पणियां:

Kailash Sharma ने कहा…

किताबें भी आजकल सोचती है
उड़ान भरने की .
पता है न उन्हे भी
इंसान मन से बौना हो गया है .

...बहुत खूब! बहुत सुन्दर प्रस्तुति...

Neelam ने कहा…

Shukriya Kailash SharmaJi :)

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