सोचने से अगर
मौसम का रूख़ बदल सकता ,
आंधियों में बुझा चराग़
फिर से जल सकता ...
सोचने से अगर
जो हुआ वो मिटा सकते ,
मरे हुए तआल्लुकात
फिर जिला सकते .
तो बेशक सोच लेते गए हुए सालों को ,
और लिख लेते मन मुताबिक़ दास्तां अपनी .
यों तो मालूम है ,
गए दिनों को सोचने से
कुछ भी हासिल नहीं होता
उदासियों के सिवा ...
मगर फिर भी
हम बार बार मुड़ के देखते हैं ,
हथेलियों से फिसल कर कहीं जो छूट गया
बार बार ,
ठहर कर उसी को सोचते हैं .
- मीता .
मौसम का रूख़ बदल सकता ,
आंधियों में बुझा चराग़
फिर से जल सकता ...
सोचने से अगर
जो हुआ वो मिटा सकते ,
मरे हुए तआल्लुकात
फिर जिला सकते .
तो बेशक सोच लेते गए हुए सालों को ,
और लिख लेते मन मुताबिक़ दास्तां अपनी .
यों तो मालूम है ,
गए दिनों को सोचने से
कुछ भी हासिल नहीं होता
उदासियों के सिवा ...
मगर फिर भी
हम बार बार मुड़ के देखते हैं ,
हथेलियों से फिसल कर कहीं जो छूट गया
बार बार ,
ठहर कर उसी को सोचते हैं .
- मीता .
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