रविवार, 20 जनवरी 2013

अपने लिए ...


तुम्हारे घर की
तिमंजिली खिडकी से
कूदती है और रोज भाग जाती है
छिली कोहनियों और फूटे घुटनों वाली औरत
ढूंढती है नीम का पेड़
और झूलती है
जीवन-जौरिया पर
ऊँची पेंगो का झूला
नीले आसमान में उड़ते
आवारा बादलों को
मारती है एक करारी लात
गूंजती फिरती है
सूफियो के राग सी
तुम्हारी पंचायतो के ऊसरों पर
खेलती है छुपम-छुपाई
हाँफती है थकती है
किसी खेत की मेंड़ पर बैठ
गंदले पानी से धोती है
अपने सिर माथे रखी
लाल स्याही की तरमीमें
फिर बड़े जतन से
चुन-चुन कर निकालती है
कलेजे की कब्रगाह में गड़ी
छिनाल की फाँसे
सहिताती है
तुम्हारे अँधेरे सीले भंडारगृह से निकली
जर्दायी देह को दिखाती है धूप
साँसों की भिंची मुट्ठियों में
भरती है हवा के कुछ घूँट
मुँहजोर सख्तजान है
फिर-फिर लौटती है
तुम्हारे घर
कुटती है पिटती है
मुस्काती है
और बोती है तुम्हारे ही आँगन में
अपने लिए
मंगलसूत्र के काले दाने
लगाती है तुम्हारे ही द्वार पर
अपने लिए
अयपन और टिकुली के दिठौने .....

- हेमा दीक्षित .

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