सोमवार, 28 जनवरी 2013

पुरुष होना चाहती हूँ .

पुरुष होना चाहती हूँ कविता में
पहनावे और केश से नहीं
कुछ अकड़ दिखा कर भी नहीं
यह तो आम हो गया है
स्त्रियों के बीच
और पुरुष भी करने लगे हैं
इस फैशन को पसंद

पुरुष होना चाहती हूँ
और उसकी कलम से
स्त्री की सुन्दरता रचना चाहती हूँ
कविता के आईने में मैं खड़ी हो कर
अपने होठों को चूस कर
उनको लहुलुहान करती
एक्स -रे मशीन जैसी आँखों को
अपनी देह पर टिकाती
अंतर्वस्त्रों में घुस कर
गुनाह में लिप्त हो जाती हूँ

मैं खुद से कॉफ़ी पीने का प्रस्ताव रखती हूँ
और कॉफ़ी को घूँट घूँट पीते हुए
जिस्म की मदिरा में लिपटती जाती हूँ .

मैं ख्वाब देखती हूँ
किसी ' आइटम ' में शामिल होने का
और जब थक जाती हूँ ख्वाबों से
क्रोध में बड़बडाती हूँ -
ल कर छोडूंगा साली को बिस्तर पर .

- सविता भार्गव .

कोई टिप्पणी नहीं:

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...