शुक्रवार, 11 जनवरी 2013

सोच रक्खा है .

कहाँ सैराब करना है , नदी ने सोच रक्खा है
मिरे बारे में सब कुछ ज़िन्दगी ने सोच रक्खा है .

मैं क्यों उलझा हुआ हूँ बेसबब सम्तों के चक्कर में
कहाँ ढूंढेंगी मुझको , गुमरही ने सोच रक्खा है .

मुझे हर पल बिखरता देखना ख्वाहिश उसी की थी
उसी का मसअला है ये , उसी ने सोच रक्खा है .

अभी कुछ वक़्त है एहसास को इज़हार होने में
सदा में कब ढलेगी , खामशी ने सोच रक्खा है .

मुझे खुद भी नहीं मालूम किस सूरत में उभरूंगा
मिरा चेहरा , मेरी बेचेहरगी ने सोच रक्खा है .

अँधेरे कौन से रखने हैं और किन को मिटाना है
हर इक शब् का मुकद्दर रौशनी ने सोच रक्खा है .

सराबों के मनाज़िर में की इक दरिया के साहिल पर
कहाँ जा कर बुझेगी तश्नगी ने सोच रक्खा है .

    - खुशबीर सिंह 'शाद' .

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