सोमवार, 28 जनवरी 2013

मैं नहीं चाहती .


मैं नहीं चाहती वो अतिरिक्त सम्मान
जो एक स्त्री होने के नाते
तुम मुझे देते हो.

मैं नहीं चाहती वो अतिरिक्त अपमान
जो एक स्त्री होने के नाते
तुम मुझे देते हो.

मैं नहीं चाहती वो कुत्सित दृष्टि
जो एक स्त्री होने के नाते
तुम मुझ पर रखते हो.

मैं नहीं चाहती संदेह की वो गंध
जो अपने पूरे समर्पण के बावज़ूद
मैं तुममें पाती हूँ.

मैं नहीं चाहती वो क्रूर आक्रोश
जो तुम मुझ पर व्यक्त करते हो.

मैं नहीं चाहती प्यार का वह शिखर
जहा पे तुम मुझे
कभी भी नफ़रत के विषैले सागर में फैंकने को स्वतंत्र हो.

मैं नहीं चाहती तुम्हारा वो अनुरिक्त
जो अपनी होने के नाते तुम मुझ पर रखते हो
और पराया होते ही
एक अश्लील गाली में बदल जाती है.

मैं नहीं चाहती तुम्हारी वो जुगुप्सा
जो एक औरत को
औरतपन के निजी पैमाने से मापती है.

मैं चाहती हूँ तुम्हारे साथ एक सहज इंसानी सम्बन्ध.
मैं चाहती हूँ तुम्हारे साथ अपने सपनों की धरती में
एक साझा सपना रोपना.

मैं चाहती हूँ तुम्हारे साथ अपनी मंजिल के आकाश में
परिंदों की भांति एक साझा उड़ान.

मैं चाहती हूँ तुम्हारे साथ एक ऐसे भावतन्तु से जुड़ना
जो हमारे दिलों के दरवाजे खोल सके.

मैं चाहती हूँ तुमसे एक ऐसी पहचान
जो मेरे वज़ूद को मुझसे बेहतर समझ सके.

आओ,
हम कदम ब कदम
साथ-साथ चलते हुए
रेतीले सागर के तट पर अपने पदचिन्ह अंकित करें.....!

- प्रभा दीक्षित .

साभार- वर्तमान साहित्य (मार्च-अप्रैल २००६)
चन्द्रकला प्रजापति जी की फेसबुक वाल से .

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